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सारा जगत ताओ का प्रवाह है
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपनी चिकित्सा, अपनी मानसिक चिकित्सा करवा रहा था। वर्षों के बाद उसके एक मित्र ने पूछा कि अब तो चिकित्सा मालूम होता है पूरी हो गई, क्योंकि तुम चिकित्सक की तरफ जाते हुए दिखाई नहीं पड़ते। क्या लाभ हुआ तुम्हें?
तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मेरी बीमारी यह थी कि मैं हर छोटी-छोटी चीज से भयभीत हो जाता—ऐसा भी नहीं कि कुछ हो रहा हो तब भयभीत होता हूं, होने की आशंका से, हो न जाए इस कल्पना से भी भयभीत हो जाता हूं। उदाहरण के लिए मेरी हालत ऐसी थी चिकित्सा के पहले कि टेलीफोन रखा हुआ है, तो कहीं घंटी न बजने लगे, कोई किसी से बात न करनी पड़े, तो मैं कंपने लगता था, घबड़ाने लगता था। और घंटी अगर बज गई तो मैं इतना घबड़ा जाता था कि मैं उठ ही नहीं सकता था अपनी जगह से।
तो उसके मित्र ने पूछा, तो अब तो तुम ठीक हो गए, अब क्या हालत है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि अब मैं इतना ठीक हो गया हूं कि अब हालत ऐसी है कि घंटी न भी बजे तो भी दिन में बीस दफे मैं फोन पर जवाब देता हूं। तब घंटी भी बजती थी तो उठ नहीं सकता था, अब घंटी नहीं भी बजती है तो कोई फिक्र नहीं, मैं तो फोन उठा कर जवाब दे ही देता हूं।
एक बीमारी से दूसरी बीमारी में चले जाना बहुत आसान है। और विपरीत बीमारी में चले जाना तो एकदम आसान है। लेकिन मूल रोग अपनी जगह खड़ा रहता है। जहां भी हम विपरीतता खड़ी करते हैं वहीं उपद्रव हो जाता है।
लाओत्से कहता है, यह सारा जगत, यह सारा अस्तित्व ताओ का प्रवाह है, धर्म का प्रवाह है।
यहां माया और ब्रह्म, ऐसे दो नहीं हैं। यह जो माया दिखाई पड़ रही है यह भी ब्रह्म का ही प्रवाह है। ऐसा कहना ठीक नहीं कि परमात्मा कण-कण में है; कण-कण परमात्मा है। यह कहना भी भ्रांत है कि कण-कण में परमात्मा है, क्योंकि तब हमने कण को अलग कर लिया और परमात्मा को ऐसे डाल दिया जैसे डब्बे के भीतर कोई किसी चीज को रख देता है। लाओत्से की दृष्टि में, कण-कण में परमात्मा है, ऐसा कहना ठीक नहीं; कण-कण ही परमात्मा है। यहां परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।
मगर तब हमें कठिनाई होगी। क्योंकि तब हम किससे लड़ेंगे? और बिना लड़े अहंकार खड़ा नहीं होता। तब हम किसको जीतेंगे, किसको दबाएंगे, किसको नष्ट करेंगे? क्योंकि बिना लड़े अहंकार को कोई मजा नहीं होता। अगर सभी कुछ परमात्मा है तो हम एकदम खाली हो जाएंगे। हमारी सारी लड़ाई खो गई। लड़ने को कुछ भी न बचा।
और हम चाहते हैं कि लड़ने को कुछ बचे। क्योंकि लड़ने में ही हमें पता चलता है कि हम हैं। जितना हम लड़ते हैं उतना हमें पता चलता है कि हम हैं। जब आपको कुछ करने को नहीं होता तब आपको ऐसा लगता है आप मिट गए।
मनसविद कहते हैं कि लोग जैसे ही अपने काम से रिटायर होते हैं उनकी दस वर्ष उम्र कम हो जाती है; क्योंकि लड़ने को कुछ नहीं बचता। यह जान कर आप हैरान होंगे कि कुंआरे लोग कम जीते हैं बजाय पतियों के, क्योंकि उनको लड़ने को कुछ नहीं होता। यह पश्चिम में जब अभी इस सब की गणना चलती थी तो वे बहुत चकित हुए। वे सोचते थे कि कुंआरा आदमी ज्यादा जीना चाहिए, क्योंकि कोई झगड़ा नहीं, कोई झंझट नहीं, पत्नी-बच्चे का उपद्रव नहीं। लेकिन वे जल्दी मर जाते हैं। क्योंकि वह झगड़ा-झंझट जो है वह जिलाए रखता है; उससे लगता है मैं भी हूं। कभी जीतते हैं, कभी हारते हैं; लेकिन दांव चलते रहते हैं। और आदमी टिका रहता है। अगर आपको लड़ने को कुछ भी नहीं है तो आपको लगेगा आप खो गए। लड़ाई से जैसे ईंधन मिलता था।
गैर-विवाहित लोग ज्यादा विक्षिप्त होते हैं बजाय विवाहित लोगों के। नहीं होना चाहिए ऐसा। क्योंकि विवाहित आदमी कैसे विक्षिप्त होने से बचता है, यही चमत्कार है। लेकिन गैर-विवाहित लोग ज्यादा मानसिक बीमार होते हैं बजाय विवाहित लोगों के। क्या होगा कारण?