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________________ मार्ग स्वयं के भीतर से है कहते हैं कि वह टावर तो वहां रुक ही गया, विवाद इतना बढ़ा कि हत्याएं हो गईं; बेबीलोनिया की पूरी सभ्यता नष्ट हो गई। क्योंकि अहंकार जब जग जाए तो स्वर्ग तक जाने का उपाय बंद हो जाता है। सीढ़ी भी लग गई हो तो रखी रह जाएगी। अहंकार न हो तो बिना सीढ़ी के भी कोई स्वर्ग तक पहुंच सकता है। विज्ञान की हालत करीब-करीब आज बेबीलोनिया के टावर जैसी है। हर विज्ञान कह रहा है कि हम ठीक हैं, . मैं ठीक हूं, शेष सब गलत हैं। जो फिजिक्स में निष्णात है वह मानता है कि बस फिजिक्स ही एकमात्र विज्ञान है, और ये मनोविज्ञान की जो बातें करने वाले लोग हैं, ये व्यर्थ की बकवास कर रहे हैं। आदमी सिवाय अणु के जोड़ के और कुछ भी नहीं। न वहां कोई मन है, न कोई आत्मा है। उनके हिसाब से बिलकुल ठीक है, क्योंकि वे अणु की ही खोज कर रहे हैं। जो आदमी बायोलाजी की खोज कर रहा है वह कह रहा है कि यह व्यर्थ की बात है। क्योंकि अणु तो मृत है, मनुष्य का जीवकोष्ठ जीवंत है। वह जीवकोष्ठ ही सब कुछ है। और जीवन को मृत से नहीं समझाया जा सकता। बायोलाजी और फिजिक्स एक-दूसरे की भाषा नहीं समझ पाते। हर विज्ञान की अपनी भाषा है, और अपना अहंकार है। तीन सौ विज्ञान हैं, तीन सौ अहंकारों के दावे हैं। इधर तीन सौ विज्ञान हैं, और करीब तीन सौ धर्म भी हैं जमीन पर। यह संख्या महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है। तीन सौ धर्म हैं जमीन पर, और ये तीन सौ धर्म भी बेबीलोन के टावर की भाषा बोलते हैं। हर धर्म बोलता है कि मैं ठीक हूं और बाकी सब गलत हैं। ज्ञान का शिखर उठना तो बंद हो गया, अहंकार के कारण अज्ञान का शिखर उठ रहा है। और सब एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने में लगे रहते हैं। इसकी बहुत चिंता नहीं है कि ठीक कौन है, इसकी बहुत चिंता है कि दूसरा गलत हो। और जब मैं दूसरे को गलत सिद्ध कर लेता हूं तब भी जरूरी नहीं है कि मैं ठीक होऊं। मैं भी गलत हो सकता हूं। लेकिन दूसरे को गलत सिद्ध करके ऐसी प्रतीति होती है कि मैं ठीक हो गया। 'ज्ञान का जो जितना ही पीछा करता है, उतना ही कम जानता है।' क्योंकि जितना पीछा किया जाता है उतनी संकीर्ण गली होती जाती है, उतना केंद्रित होता जाता है। आखिर में एक छोटा सा बिंदु हाथ लगता हैविराट खो जाता है। ब्रह्म खो जाता है, अणु हाथ लगता है। विराट को जानना हो तो ज्ञान का पीछा नहीं चाहिए। विराट को जानना हो तो आंख बंद कर लेनी चाहिए, ताकि कहीं भी कोई बिंदु न दिखाई पड़े। कोई दिशा में जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि दिशा अधूरे पर ले जाएगी। सत्य तो सभी दिशाओं में फैला हुआ है। यह दसों दिशाओं में सत्य फैला हुआ है। अगर मैं एक दिशा को चुनता हूं तो मैं गलत हो ही जाऊंगा। क्योंकि नौ दिशाओं को मुझे छोड़ना पड़ेगा। सत्य के नौ पहलू छूट जाएंगे और एक पहलू मेरी पकड़ में आएगा। और मुझे लगेगा कि यही पहलू पूरा सत्य है। और जब कोई अधूरे सत्य को सत्य का दावा कर देता है, तभी अज्ञान सघन हो जाता है। तो अगर मुझे सभी दिशाओं को जानना हो तो मुझे सभी दिशाओं को छोड़ कर चुपचाप अपने में डूब जाना चाहिए। भीतर की चेतना एक ऐसी जगह है जहां कोई दिशा नहीं है; वह ग्यारहवीं दिशा है। भीतर की चेतना में कहीं कोई दिशा नहीं है; वह दिशाशून्य है। और जब कोई भीतर की चेतना में प्रतिष्ठित हो जाता है तो वह समग्र को जानता है। पीछे जाने वाला अंश को जानता है; भीतर जाने वाला समग्र को जानता है। 'जो ज्ञान का जितना पीछा करता है, उतना ही कम जानता है। इसलिए संत बिना इधर-उधर भागे ही जानते हैं, बिना देखे ही समझते हैं, और बिना कर्म किए हुए संपन्न करते हैं।' 'इसलिए संत बिना इधर-उधर भागे ही जानते हैं।' हम तो कुछ भी पाना चाहें तो भागना ही उपाय दिखता है। अगर हम धर्म का सत्य भी जानना चाहें तो भी भागना ही उपाय दिखता है। कोई काशी जा रहा है, कोई मक्का जा रहा है, कोई कैलाश जा रहा है। कहीं जा रहे हैं। 399
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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