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ताओ उपनिषद भाग ४
निंदा नहीं है, सिर्फ पानी के तथ्य की सूचना है। अगर आग जलाती है तो वह कहेगा आग जलाती है। लेकिन इसमें कोई निंदा नहीं है। क्योंकि आग का धर्म जलाना है। तथ्य की सूचना है।
जैसे-जैसे कोई व्यक्ति स्वयं के मन को ठीक से समझने में समर्थ हो जाता है, सारा जगत समझ में आ गया कि मनुष्यता एक इकट्ठी घटना है, और थोड़े-बहुत भेद के साथ। वे भेद मात्राओं के भेद हैं, डिग्रियों के भेद हैं। कोई अट्ठानबे डिग्री पर गर्म है, कोई सत्तानबे डिग्री पर गर्म है, कोई निन्यानबे डिग्री पर गर्म है। इतने भेद मनुष्यों में हैं। लेकिन गर्मी को जिसने समझ लिया वह डिग्रियों को भी समझ लेता है।
'अपने घर के दरवाजे के बाहर बिना पांव दिए ही, कोई जान सकता है कि संसार में क्या हो रहा है।'
लेकिन अपने मन को जानना कुछ संसार से छोटी घटना नहीं है। अपने मन को जानना करीब-करीब पूरे संसार को जान लेना है। वह उतना ही विस्तीर्ण है, उतना ही जटिल है। उतना ही विराट का जंगल वहां है। अगर कोई व्यक्ति अपने मन के बारीक-बारीक रेशों को उघाड़ कर देखने लगे तो एक विराट में प्रवेश कर गया, एक बहुत बड़ी घटना में प्रवेश कर गया।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य के इस छोटे से मन में सारे विकास के संस्मरण हैं। जमीन पर, विकासवादियों . के हिसाब से, मनुष्य को हुए कोई दस लाख वर्ष हो गए कम से कम। जमीन को बने कोई चार अरब वर्ष हुए। दस लाख वर्षों में आदमी ने जो भी जाना है उस सबके संस्कार आपके मन में हैं। यह तो आदमी की बात है। लेकिन विकासवादी कहते हैं कि आदमी कोई टूटी हुई घटना नहीं है, श्रृंखला की कड़ी है। आदमी के पीछे पशुओं की श्रृंखला है, पशुओं के पीछे पौधों की श्रृंखला है। तो चार अरब वर्ष में जो कुछ भी घटा है इस पृथ्वी पर उस सबके सूक्ष्म संस्कार आपके मन में हैं। लेकिन इसे, अगर हम इस गणित को पूरा समझ लें, तो अगर मनुष्य के पहले पशुओं में जो घटा हो, पशुओं के पहले वृक्षों में जो घटा हो, वृक्षों के पहले पृथ्वी में जो घटा हो, अगर उस सबके चिह्न हमारे मन में हैं, तो पृथ्वी जब नहीं बनी थी तो जिस नीहारिका से पृथ्वी का जन्म हुआ उस नीहारिका में जो घटा होगा उसके भी लक्षण हममें होने चाहिए। इसका तो अर्थ यह हुआ कि अस्तित्व की समस्त श्रृंखला हमारे भीतर है; जो कुछ भी घटा है इस अस्तित्व में कभी भी उसे हम अपने भीतर छिपाए हैं, वह हमारे मन का हिस्सा है। और यह पीछे की तरफ! आगे की तरफ भी यह तर्क उतना ही सही है कि इस जगत में जो भी कभी कुछ घटेगा उसके भी बीज हमारे भीतर हैं। मनुष्य का मन सारा अस्तित्व है; पीछे-आगे सब आयामों में फैला हुआ।
शरीर-शास्त्री कहते हैं कि जब बच्चा मां के पेट में बढ़ता है तो नौ महीने में वह उतनी सारी यात्रा पूरी करता है जितनी मनुष्य ने पूरे अतीत के इतिहास में की है। जैसे बच्चे का जो पहला क्षण है, जब अणु पहली दफा जीवंत मां के पेट में होता है, तो वह वहीं से शुरू करता है जहां पहली मछली का अंडा सागर में जन्मा होगा। क्योंकि शरीर-शास्त्री कहते हैं कि मछली मनुष्य का पहला रूप है। तो जो बच्चा मां के पेट में होता है वह पहले मछली की तरह जीना शुरू करता है। और उनकी बात में बड़े तथ्य हैं। मां के पेट में जो पानी होता है वह ठीक सागर के जैसा पानी होता है जिसमें मछली तैरती है। उसमें उतना ही नमक होता है जितना सागर में नमक है। उसमें उतने ही केमिकल्स होते हैं जितने सागर में हैं। ठीक सागर का पानी मां के पेट में होता है जिसमें बच्चा तैरना शुरू करता है; वह मछली पहली दफा तैरना शुरू करती है। और फिर नौ महीने में करीब-करीब एक अरब वर्ष में जो विकास हुआ है-नौ महीने में बच्चा शीघ्रता से सारी सीढ़ियां पूरी करता है। ऐसी घड़ी आती है जब बच्चा बंदर की तरह होता है; उसके बाद ही बच्चा मनुष्य के बच्चे की तरह होना शुरू होता है। करीब-करीब सारी श्रृंखलाएं अल्प समय में पूरी करता है। जो इतिहास में, विकास में जिन घटनाओं को हमें पूरा करने में लाखों वर्ष लगे, बच्चा उन्हें क्षणों में पूरी करता है, लेकिन करता है पूरी। उनसे गुजरता जरूर है।
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