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मार्ग स्वयं के भीतर से है
इस अर्थ में लाओत्से कह रहा है। लेकिन इस तरह के व्यक्ति को स्वयं के मन की पूरी जानकारी चाहिए। स्वयं के मन को कोई ठीक से जान ले, उसने सारी मनुष्यता को जान लिया। उसको जानने को कुछ बचता नहीं। और अगर आप दूसरे आदमी को नहीं पहचान पाते तो उसका कुल मतलब इतना है कि आप अभी अपने को नहीं पहचान पाए हैं। अगर कोई दूसरा आदमी आपके लिए बेबूझ मालूम होता है, रहस्यपूर्ण मालूम होता है, कि आप समझ नहीं पाते, उसका कुल मतलब इतना है कि अभी आपको आपके भीतर की मनुष्यता से परिचय नहीं हुआ।
एक सागर की बूंद को कोई ठीक से समझ ले, पूरा सागर समझ में आ गया। सागर बहुत बड़ा है; बूंद बहुत छोटी है। लेकिन जो सागर में है वह बूंद में भी सूक्ष्म में मौजूद है। फिर सागर बूंद का ही विस्तार है, या बूंद सागर का ही संकोच है। बूंद को चख कर जिसने जान लिया कि वह नमकीन है, वह जान गया कि पूरा सागर खारेपन से भरा है। फिर पूरे सागर को चख-चख कर जानने की जरूरत नहीं है। और जो सागर को जगह-जगह चखने जाए और तब भी पक्का न कर पाए, समझना चाहिए कि वह मूढ़ है।
अगर मैंने अपने भीतर के मन को ही समझ लिया तो मैंने सारी मनुष्यता का मन समझ लिया। इसीलिए संत दयालु हो जाते हैं, क्योंकि वे अपने मन को समझ कर जान जाते हैं कि आदमी कितना कमजोर है! आदमी कितना दीन है! आदमी कितना मजबूर है! इसलिए वे आदमी को क्षमा कर सकते हैं। उनकी क्षमा उनके स्वयं के मन की समझ से पैदा होती है। और जो संत किसी को क्षमा न कर सके, समझना कि वह अभी संत नहीं है। उसे पता ही नहीं है कि आदमी की कैसी मजबूरी है।
आप जिनको साधु और संत मानते हैं वे करीब-करीब आप ही जैसे लोग हैं; उतने ही गहरे अज्ञान में खड़े। वे 'आपको क्षमा नहीं कर पाते, वे आपको अपराधी घोषित करते हैं। अगर आपसे कोई छोटी-मोटी भूल हो जाती है तो उनके हृदय में क्षमा पैदा नहीं होती। निश्चित ही, उन्हें अपने भी मन की पूरी समझ नहीं है; और आदमी कमजोर है
और भूल-चूक से भरा है, इसका बोध नहीं है। या फिर उन्होंने अपनी ही भूलों को, अपने ही मन को इतने अचेतन में दबा दिया है कि उनके संबंध छूट गए हैं।
जो व्यक्ति अपने को ठीक से समझ लेगा, इस जगत में फिर कोई भी मनुष्य उसके लिए अपरिचित नहीं रहा। और जो भी अपराध कोई भी मनुष्य इस पृथ्वी पर कर सकता है, अपने मन को समझने वाला जानता है कि मैं भी कर सकता था। और जो मैं कर सकता हूं उसके लिए दूसरे पर क्रोधित, उसे दंडित करने, उसे नरक में डालने की बात बेहूदी है। जैसे ही कोई मन को ठीक से समझता है वह जानता है, बुरे से बुरा मेरे भीतर छिपा है और भले से भला भी। इसलिए संत न तो बुरे की निंदा करते हैं और न भले की प्रशंसा। क्योंकि दोनों संभावनाएं उनकी ही संभावनाएं हैं। उनके भीतर बुद्ध भी छिपा है; उनके भीतर हिटलर भी छिपा है। राम भी और रावण भी! रावण भी अपना ही हिस्सा है और राम भी अपना ही हिस्सा है। और युद्ध कहीं बाहर नहीं, भीतर है। और ये दोनों पात्र किसी कथा के पात्र नहीं, अपने ही मन के दो हिस्सों के नाम हैं। और दोनों हिस्से मेरे हैं। तो न तो राम पूजा योग्य रह जाते हैं और न रावण निंदा योग्य रह जाता है।
यह थोड़ा सुन कर कठिनाई होगी। क्योंकि यह तो हमारी समझ में आ भी जाता है कि मत करो निंदा रावण की, लेकिन राम की तो पूजा करो। पर ध्यान रहे, जो पूजा करता है वह निंदा भी करेगा। जो सम्मान करता है वह अपमान भी करेगा। तो अगर कोई साधु महावीर का सम्मान कर रहा है, राम का सम्मान कर रहा है, कृष्ण का सम्मान कर रहा है, तो रावण के अपमान से कैसे बचेगा?
इसलिए परम संत पुरुष न तो निंदा करता है और न प्रशंसा। उसके वक्तव्य तथ्य के वक्तव्य होते हैं, मूल्यांकन के नहीं। अगर पानी नीचे की तरफ बहता है तो वह कहेगा पानी नीचे की तरफ बहता है। लेकिन इसमें कोई
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