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________________ मार्ग स्वयं के भीतर से हैं 393 शरीर में भी, मन में भी सारा इतिहास छिपा है। लाओत्से की बात वैज्ञानिक है। अगर कोई व्यक्ति अपने मन और अपने शरीर की, अपने अस्तित्व की, अपने व्यक्तित्व की पूरी परिधि को पहचान ले, तो संसार में कहां क्या हो रहा है, और कहां क्या हुआ था, और कहां क्या होगा - वर्तमान ही नहीं, अतीत भी, भविष्य भी - सभी की सूक्ष्म झलक उसे मिलनी शुरू हो जाती है। पश्चिम के वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग कर-करके नतीजों पर पहुंचे हैं, पूरब योगी सिर्फ अपने मन में ही डूब कर, खोज करके नतीजों पर पहुंचे हैं। नतीजे करीब-करीब समान हैं। फर्क बहुत ज्यादा नहीं है। डार्विन ने कहा कि आदमी पशुओं से पैदा हुआ है। ईसाइयत को बहुत विरोध हुआ। क्योंकि ईसाइयत के पास योग का कोई बहुत पुराना इतिहास नहीं है, और योगियों की कोई बहुत बड़ी परंपरा नहीं है । ईसाइयत एक क्रियाकांड धर्म है। उसके पास अनुभव के स्रोत उतने जीवंत नहीं हैं जितना कि भारत में बौद्धों या हिंदुओं या जैनों के पास हैं । ईसाइयत ने विरोध किया, क्योंकि यह बात बड़ी बेहूदी लगी कि कल तक हम मानते थे कि आदमी का जन्म परमात्मा से हुआ, स्वयं परमात्मा पिता है आदमी का, और अचानक डार्विन ने घोषणा की कि परमात्मा का तो हमें कोई पता नहीं, आदमी का पिता बंदर है। परमात्मा से पिता का बंदर की तरफ झुक जाना बहुत अपमानजनक मालूम पड़ा । कहां आदमी देवताओं से जरा ही नीचे था और कहां बंदरों के साथ संयुक्त हो गया ! लेकिन पूरब के योगी निरंतर कहते रहे हैं कि मनुष्य की चेतना पशुओं से विकसित होकर आगे आ रही है। हमने निरंतर कहा है कि चौरासी कोटि योनियों में आदमी भटका है, तब मनुष्य हो पाया है। अगर डार्विन ने यह भारत में कही होती तो हमें कोई अड़चन न होती। क्योंकि डार्विन तो एक बहुत छोटी सी बात कह रहा था। वह तो सिर्फ इतना ही कह रहा था कि एक योनि, बंदर की योनि से मनुष्य आया है; हम तो कहते रहे हैं कि चौरासी करोड़ योनियों से ! उसमें छोटी इल्लियां हैं, कीड़े मकोड़े, पतिंगे, सब हैं। जितने भी जीवन हैं इस जगत में, उन सबसे मनुष्य गुजरा है, और तब मनुष्य हुआ है। विकास की जैसी धारणा हमारी है वैसी अभी पश्चिम के विज्ञान को पाने में थोड़ा समय है, थोड़ा वक्त है । पर हमने प्रयोगशाला में यह प्रयोग करके नहीं जाना था । हमने तो मनुष्य के मन को ही समझ कर जाना था। और मनुष्य के मन में ही सब कुछ छिपा है। सारी यात्रा के चिह्न और अनंत यात्रा की धूल मनुष्य के मन पर जमी है। हमने सिर्फ मनुष्य की एक बूंद को खोल कर पहचानने की कोशिश की थी कि आदमी का पूरा इतिहास क्या है; ज्ञात, अज्ञात, कहां-कहां से आदमी गुजरा है। ‘अपनी खिड़कियों के बाहर बिना झांके हुए, कोई स्वर्ग के ताओ को देख सकता है।' और संसार में क्या हो रहा है यह तो ठीक ही है, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कि जीवन का आत्यंतिक स्वभाव क्या है, ताओ क्या है ! और जीवन का वह स्रोत कहां है जहां से सारा आनंद, सारा संगीत, सारा रस पैदा होता है ! जहां से जीवन निकलता है, फैलता है, जहां से जीवन अंकुरित होता है, वह मूल स्वभाव क्या है ! लाओत्से कहता है, अपने घर की खिड़कियों को खोले बिना, उनसे बिना झांके, कोई स्वर्ग के ताओ को भी देख सकता है। इस पृथ्वी के स्वभाव को जानना तो दूर, स्वर्ग के स्वभाव को भी, आत्यंतिक सत्य के स्वभाव को भी, आनंद की आखिरी पर्त को भी जानने का उपाय स्वयं के भीतर है। मन को अगर जान लें तो संसार को जान लिया । और मन के पीछे जो चैतन्य छिपा है अगर उसे जान लें, तो संसार का जो आत्यंतिक स्वभाव है, सत्य, अस्तित्व की जो आखिरी घटना है, जिससे और पीछे नहीं जाया जा सकता, उस ताओ को, उस ऋत को, उस धर्म को जाना जा सकता है। लेकिन हम तो मन से ही परिचित नहीं हो पाते। और चेतना मन के पीछे छिपी है। चेतना से मतलब है उस तत्व का जो मन को देखता है।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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