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प्रार्थना मांग बही, धन्यवाद है
ययाति की कथा है। सौ वर्ष का हुआ, मरने को है, मौत आई। तो ययाति ने कहा कि मुझे कुछ दिन और छोड़ दो, क्योंकि अभी तो मैं जीवन को भोग भी नहीं पाया।
सौ वर्ष काफी होने चाहिए। लेकिन आप भी सौ वर्ष के हो जाएं और मौत आपको सोचने का मौका दे तो जो ययाति ने कहा वही आप कहेंगे। इसलिए कहानी सत्य है। घटी हो कभी, न घटी हो; मनुष्य के मन का गहरा तथ्य है। -
ययाति ने अपने बेटों को कहा-उसके सौ बेटे थे—उसने कहा कि तुममें से कोई मुझे अपनी उम्र दे दो। मौत ने कहा, अगर कोई बेटा राजी हो तो मैं उसको ले जाऊं; किसी को तो ले जाना ही पड़ेगा। निन्यानबे बेटे एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। वे सब बुद्धिमान थे। सबकी उम्र काफी थी। उनमें से कई तो खुद भी बूढ़े हो गए थे। छोटा बेटा जो अभी बिलकुल ताजा था और जिसको अभी कोई अनुभव न था, वह पिता के पास आया और उसने कहा कि आप मेरी उम्र ले लें। मौत को भी दया आ गई, क्योंकि यह बेटा तो अभी बिलकुल ताजा था, अभी इसने जिंदगी का कोई अनुभव न लिया था। उसने कहा कि तू क्यों ऐसा कर रहा है? उसने कहा कि जब मेरे पिता सौ वर्ष में तृप्त न हो सके तो मैं भी क्या तृप्त हो पाऊंगा! और जब उन्हें अभी भी उम्र की जरूरत है और सौ वर्ष के बाद भी मरने को राजी नहीं हैं तो सौ वर्ष व्यर्थ परेशान होने में कोई सार नहीं। मरना तो पड़ेगा, और अतृप्त ही मरना पड़ेगा।
फिर भी ययाति को बोध न हुआ। बेटा मर गया। ययाति सौ वर्ष और जीया। फिर मौत आ गई। तब तक उसके सौ और बेटे पैदा हो गए थे। उसने कहा, यह तो बहुत जल्दी है। ये सौ वर्ष ऐसे बीत गए, पता न चला। अभी तो कुछ भी तृप्त नहीं हुआ।
ऐसे कहानी चलती है, और हर बार एक बेटा अपनी उम्र देकर ययाति को जिंदा रखता है। हजार साल ययाति जिंदा रहा। और जब हजारवें साल मौत आई तब भी वह वहीं था जहां पहली बार मौत आई थी। उसने फिर वही कहा कि इतने जल्दी क्यों आना हो जाता है? और अभी कुछ पूरा नहीं हुआ। मौत ने कहा कि तुम्हें कब दिखाई पड़ेगा कि यह कभी पूरा नहीं होगा। यह पूरी होने वाली बात ही नहीं है। वासना की कोई सीमा नहीं है; वह कहीं पूरी नहीं होती।
इसलिए अतृप्ति अभिशाप है बड़े से बड़ा, क्योंकि वह कभी भी किसी भी क्षण में मनुष्य को सुख से न जुड़ने देगी। कोई और अभिशाप देने की जरूरत नहीं। भारत में ऋषि-मुनि अभिशाप देने के आदी रहे। पता नहीं फिर भी लोग उनको क्यों ऋषि-मुनि कहे चले जाते हैं! उनको अगर लाओत्से का पता होता तो वे इस तरह के अभिशाप न देते जैसे उन्होंने दिए। दुर्वासा को पता होता तो वह यही कहता कि जा, तू सदा असंतुष्ट रह! इतना काफी था। यह बड़े से बड़ा अभिशाप है। लेकिन आपको किसी दुर्वासा की जरूरत नहीं, आप खुद ही अपने को अभिशाप दे रहे हैं। आपने इसको जीवन का ढंग बना रखा है-असंतुष्ट!
'संतोष के अभाव से बड़ा कोई अभिशाप नहीं; स्वामित्व की इच्छा से बड़ा कोई पाप नहीं।'
लाओत्से अनूठा है, और जितनी सूत्र में उसने बातें कह दी हैं, बड़े से बड़े पूरे शास्त्र भी उतनी बातें विस्तार में भी नहीं कह पाते। स्वामित्व से बड़ा कोई पाप नहीं। लोग कहते हैं, पंच पाप गिनाते हैं कि हिंसा पाप है, कि चोरी पाप है, कि लोभ पाप है, कि कोई और गिनाता है, कि वासना, काम। लाओत्से कहता है, स्वामित्व की आकांक्षा। और मैं मानता हूं कि वह ठीक है। बाकी सब पाप स्वामित्व की आकांक्षा से पैदा होते हैं। बाकी सब पाप गौण हैं, वे मूल नहीं हैं। किसी के मालिक होने की आकांक्षा, मालकियत का भाव, फिर चाहे वह धन की मालकियत हो, चाहे किसी व्यक्ति की मालकियत हो, किसी भी दिशा में स्वामित्व होने की जो दौड़ है, लाओत्से कहता है, वह बड़े से बड़ा पाप है, वह महापाप है। क्यों? समझ में आता है कि संतोष न हो तो अभिशाप है। स्वामित्व की दौड़ हो तो पाप क्यों है?
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