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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ वैसे-वैसे जिन तलों से चेतना हट जाती है उन तलों की बीमारियां विसर्जित हो जाती हैं। और जब कोई चेतना ठीक स्वभाव में ठहर जाती है, या स्वभाव के साथ एक हो जाती है, तो सारी बीमारियां तिरोहित हो जाती हैं। बुद्ध को क्रोध नहीं होता, ऐसा कहना गलत है। बुद्ध क्रोध नहीं करते, ऐसा कहना भी गलत है। बुद्ध क्रोध पर संयम रखते हैं, ऐसा कहना भी गलत है। बुद्ध जहां हैं वहां से क्रोध से कोई संबंध नहीं रहा। जहां क्रोध हो सकता था वहां बुद्ध अब नहीं हैं। जिस मन की सतह पर क्रोध जलता था वहां बुद्ध अब नहीं हैं। बुद्ध अब उस केंद्र पर हैं जहां से क्रोध और उसके बीच अनंत आकाश हो गया, जहां से कोई संबंध नहीं जुड़ता। स्वभाव के साथ एकता समस्त बीमारियों का विसर्जन बन जाती है। ___'संतोष के अभाव से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है; स्वामित्व की इच्छा से बड़ा कोई पाप नहीं है। इसलिए जो संतोष से संतुष्ट है वह सदा भरा-पूरा रहेगा।' 'संतोष के अभाव से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है।' अब हम समझ सकते हैं। क्योंकि संतोष को सूत्र मानता है लाओत्से, स्वभाव के साथ एक होने का। असंतुष्ट का अर्थ है : मैं कुछ और होना चाहता हूं जो मैं हूं उससे। संतोष का अर्थ है : जो भी मैं हूं, प्रकृति ने मुझे जो बनाया, . मैं उससे राजी हूं। न मेरा कोई आदर्श है जिसे पूरा करना है, न कोई लक्ष्य है जहां तक मुझे पहुंचना है, न कोई उद्देश्य है। प्रकृति ने जो मुझे बनाया वही मेरी नियति है। मैं उससे राजी हूं। गुलाब गुलाब होने से राजी है; घास का फूल घास होने से राजी है। घास के फूल को आकांक्षा नहीं है कि गुलाब हो जाए। न गुलाब को फिक्र है कमल हो जाने की। अगर उनको फिक्र हो जाए तो हमें गुलाब के पौधों को भी पागलखाने में भर्ती करना पड़े, उनको चिकित्सा करवानी पड़े। उनको रात नींद न आए, उनका मन ज्वरग्रस्त हो जाए, उन्हें भी हार्ट-अटैक होने लगे। असंतोष का अर्थ है, प्रकृति ने जो मुझे बनाया उससे भिन्न होने की मेरी आकांक्षा है। और यह मैं कभी हो न पाऊंगा। क्योंकि जो मैं नहीं हूं वह मैं नहीं हो सकता हूं। इसका कोई उपाय नहीं है। मैं जो हूं बस वही हो सकता हूं। 'संतोष के अभाव से बड़ा कोई अभिशाप नहीं है।' इसलिए लाओत्से इसे बड़े से बड़ा अभिशाप कहता है कि यह बड़े से बड़ा, जीवन में बड़ी से बड़ी भूल कोई भी अगर संभव है तो वह यह है कि मैं कुछ और होने की कोशिश में लग जाऊं, जो मैं हूँ उससे अन्यथा होने की दौड़ मुझे पकड़ ले। यह अभिशाप है। जो मैं हूं वही होने को मैं राजी हो जाऊं, यह वरदान है। थोड़ा सोचें। आप जो हैं अगर वही होने से राजी हैं, एक क्षण को भी आपको यह झलक आ जाए कि जो मैं हूं, ठीक हूं। सारे अभिशाप हट गए, सारे बादल हट गए, और आकाश खुला हो गया। लेकिन हजार-एक दिशा में ही आप बदलना चाहते हों, ऐसा नहीं-हजार दिशाओं में दौड़ है। बुद्धिमान नहीं हैं तो बुद्धिमान होना चाहते हैं; गरीब हैं तो अमीर होना चाहते हैं; संदर नहीं हैं तो संदर होना चाहते हैं। और किसी को पता नहीं है कि सुंदर होने का क्या अर्थ है। और कोई नहीं व्याख्या कर सकता कि सुंदर कौन है। न कोई मापदंड है। सब अंधेरे में टटोलना है। आप कुछ भी हो जाएं, वहां भी आपको कुछ भरोसा मिलने वाला नहीं है। क्योंकि कितने धन से आपको तृप्ति मिलेगी? कभी सोचें। सिर्फ सोचें, अभी धन मिल भी नहीं गया है; सिर्फ सोचें। दस हजार? मन कहेगा, इतने से क्या होने वाला है! दस लाख? मन कहेगा, जब सिर्फ सोचने पर ही निर्भर है तो इतने सस्ते में क्यों राजी होते हो! जहां तक आपको संख्या आती होगी मन कम से कम वहां तक तो ले ही जाएगा। और तब भी भीतर कुछ अड़चन बनी ही रहेगी कि इससे ज्यादा भी हो सकता था। कितना सौंदर्य आपको तृप्त करेगा? कितना स्वास्थ्य आपको तृप्त करेगा? कितनी उम्र चाहिए? 378
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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