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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 370 पश्चिम में यही हो रहा है। आदमी खोता जाता है; साधन, सामग्री, व्यवस्था, सुविधा बढ़ती जाती है। वह जिसके लिए बढ़ रही है वह धीरे-धीरे बचेगा ही नहीं; उसके बचने की कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ती। तो एक तो विकास है, महत्वाकांक्षा की डोर से जबरदस्ती आदमी की गर्दन खींची जाए। एक और विकास है जो महत्वाकांक्षा की डोर से पैदा नहीं होता। हम एक बीज को बोते हैं; अंकुर फूटता है। इस अंकुर को कोई भी खींच नहीं रहा है। और अगर आप खींचेंगे रस्सी बांध कर तो आप हत्यारे सिद्ध होंगे; पौधा मर जाएगा। इसे कोई भी खींच नहीं रहा है; कोई भी वासना, कोई भी आकांक्षा, कोई भविष्य इसे बुला नहीं रहा है। यह कुछ होना नहीं चाहता। इस बीज की अदम्य ऊर्जा ! इसकी शक्ति! इसलिए हम करते क्या हैं? जब बीज से अंकुर फूटता है तो हम पानी देते हैं, खाद देते हैं, पौधे को खींचते नहीं । पानी और खाद का अर्थ है, हम उसे शक्ति दे रहे हैं, हम उसके भीतर जो शक्ति छिपी है, उसे प्रकट होने का अवसर दे रहे हैं। वह शक्ति अपने आप ही पौधे को खींचती ले जाएगी। और पौधा प्रतिपल आनंदित होगा। क्योंकि कोई भविष्य की वजह से वह आज दुखी होने वाला नहीं है कि कल फूल खिलेंगे, तब सुख होगा। जब फूल नहीं खिले हैं तब भी पौधा सुखी होगा; जब फूल खिलेंगे तब भी सुखी होगा; हर क्षण में सुखी होगा । . लाओत्से कहता है, विकास स्वभाव से । विकास जबरदस्ती नहीं, खींचतान से नहीं; मनुष्य की भीतरी शक्ति ही उसे विकसित होने में लेती जाए, वह एक नदी की धार की तरह बहता रहे। मनुष्य का शक्ति का यह जो स्रोत है यह स्वीकार के भाव से बढ़ता है, अस्वीकार के भाव से कम होता है। क्योंकि जैसे ही हम किसी चीज को अस्वीकृत करते हैं, हमारा विरोध शुरू हो गया। जहां विरोध है वहां संघर्ष है। जहां संघर्ष है वहां हम लड़ने में उलझ गए, और हमारी शक्ति लड़ने में नष्ट होगी। स्वीकार का अर्थ है, हमारा कोई विरोध नहीं; हमारी शक्ति के व्यय होने का कोई उपाय नहीं। हम लड़ नहीं रहे हैं, हमारा कोई संघर्ष नहीं है। और ध्यान रहे, जैसे ही कोई व्यक्ति लड़ने की वृत्ति पकड़ लेता है, उसके जीवन में धर्म का अनुभव कठिन हो जाएगा। क्योंकि धर्म के अनुभव का एक ही अर्थ है कि इस अस्तित्व के साथ मेरी मैत्री है, विरोध नहीं; इस समग्र अस्तित्व का मैं एक हिस्सा हूं, इसका शत्रु नहीं, और यह पूरा ब्रह्मांड मुझे खिला हुआ देखना चाहता है, मुझे मिटाने को आतुर नहीं है । उसी ने मुझे पैदा किया है, वही मेरी शक्ति को सहारा दे रहा है। श्वास उसकी है, रो-रो उसका दान है। मैं जो कुछ भी हूं, इस विराट विश्व के भीतर से उठा हूं और यह विराट विश्व मेरा शत्रु नहीं है। यह मेरा घर है। यहां कोई कांक्वेस्ट ऑफ नेचर, कोई प्रकृति पर विजय करने की बात नहीं है। क्योंकि प्रकृति पर विजय हो नहीं सकती। मैं प्रकृति का हिस्सा हूं; हिस्सा पूर्ण पर कोई भी विजय नहीं पा सकता। लड़ सकता है; लड़ कर नष्ट हो सकता है; दुखी और पीड़ित हो सकता है; लेकिन उस सौभाग्य को उपलब्ध नहीं हो सकता जहां प्रतिपल उत् हो जाता है। यह उत्सव तो तभी संभव है जब अस्तित्व के साथ मेरी गहरी एकता का बोध मुझे शुरू हो जाए; जब मुझे लगे कि मैं पराया नहीं हूं; जब मुझे लगे कि मैं अजनबी नहीं हूं; और जब मुझे लगे कि वृक्ष और चांद और तारे और पौधे और पृथ्वी और पशु और पक्षी सब मेरे साथ हैं। स्वीकार का भाव इस साथपन के भाव को भी पैदा करता है। पश्चिम में एक नई चिंतना चलती है। उस नई चिंतना अस्तित्ववाद ने एक महत्वपूर्ण सवाल, जो पश्चिम के हर विचारशील आदमी को परेशान कर रहा है, काफी जोर से उठाया –नारे की तरह। और वह यह है कि आदमी आउटसाइडर है, आदमी अजनबी है; और प्रकृति को आदमी से कोई प्रयोजन नहीं; और यह ब्रह्मांड बिलकुल उपेक्षा से भरा है, और यह ब्रह्मांड आदमी को सहारा देने को जरा भी उत्सुक नहीं है। तो आदमी एक स्ट्रेंजर है, एक अजनबी है। यह अस्तित्व घर तो हो ही नहीं सकता, ज्यादा से ज्यादा, अच्छी से अच्छी संभावना एक धर्मशाला होने
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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