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________________ प्रार्थबा मांग बही, धन्यवाद है की है, बुरी से बुरी संभावना एक युद्धस्थल की। लेकिन यह घर नहीं है। और अगर ऐसी प्रतीति हो कि यह अस्तित्व घर नहीं है, एक धर्मशाला है-श्रेष्ठतम संभावना धर्मशाला की है। श्रेष्ठतम संभावना तो बहुत थोड़े लोग पा सकेंगे, अधिकतम लोगों को युद्धस्थल की। यह जगत युद्धस्थल है, जहां लड़ना है और मरना है; जहां जीने का, आनंद से, उत्सव से जीने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि सब तरफ शत्रु हैं और सब अपने-अपने को बचाने और दूसरे को नष्ट करने के खयाल में संलग्न हैं। ऐसी धारणा अगर हो और फिर मनुष्य अगर बहुत बेचैन हो जाए तो आश्चर्य क्या? फिर अगर पश्चिम में पागलों की संख्या बढ़ने लगे और मस्तिष्क प्रतिदिन रुग्ण होता चला जाए, इसे स्वाभाविक मानना होगा। यह सहज परिणति है। अगर आदमी अकेला है और सारा जगत शत्रु है, तो इस अंधकारपूर्ण जगत में जहां सभी कुछ शत्रु है, हम कैसे शांत हो सकते हैं? कैसे आनंदित हो सकते हैं? समाधि कैसे फलित हो सकती है? लाओत्से की दृष्टि इस जगत को एक घर, अपना घर बनाने की है। घर तो है ही, हमारी दृष्टि पर निर्भर है। हम चाहें तो उसे युद्ध का स्थल बना सकते हैं। तथाता, स्वीकार का भाव, टोटल एक्सेप्टबिलिटी लाओत्से का आधार सूत्र है। जो भी मैं हूं, जहां भी मैं हूं, उस क्षण में उससे अन्यथा की मांग न हो। इसके परिणाम बहुत होंगे। पहला परिणाम तो यह होगा: जो भी मैं हूं, जहां भी हूं, जैसा भी है, जो मुझे मिला है कम या ज्यादा-क्योंकि कम और ज्यादा का खयाल तभी पैदा होता है जब मैं कुछ और की मांग करूं-जो भी है उससे अगर मैं संतुष्ट हूं, तो यह क्षण मेरा परम सुख का क्षण हो जाएगा। और इस संतोष के माध्यम से यह जगत मेरा घर बन जाएगा; और इस संतोष के माध्यम से मेरी शक्ति बचेगी, और उस शक्ति से नए अंकुर फटेंगे; मैं विकसित होता रहूंगा, मैं प्रवाहवान रहूंगा। लेकिन वह प्रवाह सहज होगा। वह किसी संघर्ष के द्वारा नहीं, वह किसी युद्ध के द्वारा नहीं, वह प्रवाह प्रेमपूर्ण होगा, वह प्रवाह एक प्रार्थना की धारा होगी। लाओत्से या बुद्ध को पूरब समझ नहीं पाया, या फिर पूरब के लोगों ने लाओत्से और बुद्ध की जो व्याख्या की, वह उनके चालाक मन का सबूत है। लाओत्से यह नहीं कह रहा है कि तुम रुक जाना। वह यह भी नहीं कह रहा है कि तुम आंखें बंद कर लेना। वह यह भी नहीं कह रहा है कि तुम मुर्दा हो जाना। और लाओत्से जिसको संतोष कहता है, हम उसे संतोष नहीं कहते। शब्द के कारण बड़ी भ्रांति पैदा होती है। मेरे पास लोग आते हैं। एक मित्र ने एक दिन मुझे आकर कहा कि साधु-संत कहते हैं कि संतोषी सदा सुखी। मैं तो सदा से संतोष कर रहा हूं, लेकिन सुख का तो कोई पता नहीं। इस व्यक्ति का संतोष किस भांति का होगा? क्योंकि संतोष का सुख सहज परिणाम है। यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई आदमी कहे कि पानी तो मैं रोज पी रहा हूं, लेकिन प्यास तो मेरी कभी बुझी नहीं। तो समझना चाहिए कि पानी की जगह वह कुछ और पी रहा होगा। पानी का तो लक्षण ही प्यास को बुझाना है। वह उसका स्वभाव है। यह आदमी कहता है कि संतोष तो मैं सदा से कर रहा हूं, लेकिन सुख मुझे कभी मिला नहीं। इस एक वाक्य में पूरे पूरब की भूल छिपी हुई है। मैंने उस आदमी को कहा कि तुम संतोष तो इस क्षण भी नहीं कर रहे हो, सदा की तो बात छोड़ो। क्योंकि यह असंतुष्ट चित्त का लक्षण है जो कह रहा है कि सुख मुझे कभी नहीं मिला। संतोष का अर्थ ही यह होता है कि जो मुझे मिला वह सुख था; जो भी मुझे मिला वह मेरा सुख था। संतोष का इतना ही अर्थ है। तो इस आदमी का संतोष कुछ और ढंग का है। इसके संतोष को-अच्छा होगा-हम कहें, सांत्वना, कंसोलेशन; कंटेंटमेंट नहीं। सांत्वना बड़ी उलटी बात है। जो आप नहीं पा सकते, जिसको पाने की आप सब कोशिश कर लेते हैं और सफल नहीं होते...। ईसप की कहानी आपको खयाल है? लोमड़ी छलांग लगाती है और अंगूर के गुच्छों तक नहीं पहुंचती, तो वह कहती हुई सुनी जाती है कि अंगूर खट्टे हैं। यह सांत्वना है। इससे लोमड़ी अपनी पराजय को छिपा रही है। यह संतोष 371
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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