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प्रार्थना मांग बही, धन्यवाद है
लाओत्से कहता है, जो व्यक्ति भी जहां है उस अवस्था को उसकी परिपूर्णता में स्वीकार कर लेता है उसके जीवन में दुख का कोई उपाय नहीं।
लेकिन इससे हमें डर लगेगा। इससे डर यह लगेगा कि जो भी हमारे पास है, अगर हम स्वीकार कर लें, तो फिर विकास का क्या उपाय है? और अगर हम श्रेष्ठतर को न सोच सकें तो खोजेंगे क्यों? खोजेंगे कैसे? फिर मनुष्य भी पशु जैसा हो जाएगा।
पश्चिम के विचारक, विकासवादी विचारक, यही आलोचना पूरब की उठाते हैं। उनकी आलोचना तर्कयुक्त है। वे कहते हैं कि पूरब इसीलिए विकसित नहीं हो पाया। और पूरब को देख कर उनकी बात सही भी मालूम पड़ती है। क्योंकि पूरब स्वीकार कर लेता है। अगर झोपड़ा है तो झोपड़ा स्वीकार है, और गरीबी है तो गरीबी स्वीकार है, भूख है तो भूख स्वीकार है। इस स्वीकार के कारण पूरब में विज्ञान का जन्म नहीं हुआ।
यह बात ठीक मालूम पड़ती है। पश्चिम में विज्ञान का जन्म हो सका, क्योंकि बड़ी कल्पना है। और जो कुछ भी बना पाते हैं, बना भी नहीं पाते कि वह व्यर्थ हो जाता है, आउट ऑफ डेट मालूम होने लगता है, क्योंकि कुछ और नई कल्पना सामने आ जाती है।
तो पश्चिम जी ही नहीं पाता। बनाता है जीने के लिए, तब तक और बेहतर हो सकता है; बन नहीं पाती कोई चीज कि मिटने के करीब, मिटने का क्षण आ जाता है। पश्चिम जी नहीं पाता, दौड़ता रहता है। पूरब खड़ा है, लेकिन खड़ा है बड़ी पीड़ाओं में और कोई विकास नहीं हो पाता। लाओत्से, बुद्ध, महावीर की जो बड़ी से बड़ी आलोचना है वह पूरब की वर्तमान स्थिति है। और अगर पूरब का विचार पश्चिम को स्वीकार नहीं होता तो उसका कारण है कि पूरब को देख कर लगता है कि वह स्वीकार करने योग्य नहीं है। वह खतरनाक है। उससे एक जड़ता पैदा हो जाएगी।
लेकिन लाओत्से को या बुद्ध को समझने में कहीं हमारी भूल हो गई है। भूल की संभावना सदा है। क्योंकि जिस तल से लाओत्से बोलता है उस तल पर हम नहीं समझ पाते। लाओत्से की बात अगर ठीक से समझ में आ जाए और जो भी हमारी स्थिति हो उसे हम पूरे हृदय से स्वीकार कर लें तो इससे विकास रुकेगा नहीं, विकास होगा। लेकिन विकास के होने का ढंग बदल जाएगा। हम उस स्थिति में इतने आनंदित हो जाएंगे, और दुख में हमारी जो शक्ति व्यय होती है वह शक्ति व्यय नहीं होगी। . ध्यान रहे, दुख में शक्ति व्यय होती है। पीड़ा में आदमी टूटता है, नष्ट होता है। और आनंद के अतिरिक्त इस जगत में शक्ति का कोई दूसरा स्रोत नहीं है। जो व्यक्ति जीवन को स्वीकार कर ले, प्रतिपल जैसा है, इससे ठहर नहीं जाएगा। इस स्वीकृति से उसके पास अदम्य शक्ति बचेगी। उसकी शक्ति का व्यर्थ बहना बंद हो जाएगा। उसकी शक्ति के छिद्र, जिनसे शक्ति बहती है, समाप्त हो जाएंगे। वह टूटेगा नहीं, वह अखंड होगा, वह अटूट होगा, और एक महाशक्ति का स्रोत होगा। यह महाशक्ति अपनी शक्ति के कारण ही प्रतिपल विकसित होगी।
इस विकास का ढंग ऐसा नहीं होगा जैसा एक आदमी एक गाय को गले में रस्सी बांध कर घसीटता है; गाय न भी जाना चाहे तो आदमी घसीटता है और गाय को जाना पड़ता है। पश्चिम में जो विकास हो रहा है वह इस तरह का है। महत्वाकांक्षा आगे खींचती है रस्सी की तरह; रुकने का कोई उपाय नहीं मालूम होता। प्रत्येक आदमी महत्वाकांक्षा की रस्सी में बंधा हुआ खिंचता है। इसलिए विकास तो होता है, लेकिन महादुख, पीड़ा, तनाव और अशांति के साथ। और जो विकास पीड़ा में ले जाए, संताप में ले जाए, विक्षिप्तता में ले जाए, उस विकास का करेंगे भी क्या? मकान अच्छा बन जाए, भोजन अच्छा हो जाए और आदमी खोता चला जाए; और जिसके लिए हम मकान बनाते हैं और जिसके लिए अच्छा भोजन, अच्छी टेक्नालाजी, यंत्रों का इंतजाम करते हैं, वह बचे ही न उनके उपभोग के लिए; उपभोग की सामग्री इकट्ठी हो जाए, उपभोक्ता मर जाए, तो क्या प्रयोजन है?
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