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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 332 हम बच्चों को यही समझा रहे हैं। मां-बाप बच्चों को कह रहे हैं, देखो, ध्यान रखो कि कोई बुरा न समझे। कोई क्या कहता है! तुम बड़े कुल में पैदा हुए हो, तुम्हारे घर की प्रतिष्ठा है, मां-बाप का नाम है। ध्यान रखना, तुम क्या करते हो ! कैसे उठते-बैठते हो ! दूसरे कुछ गलत न कहें, कोई इशारा न उठाए, तुम्हारी तरफ कोई अंगुली न उठे। इसी के लिए हम तैयार किए जा रहे हैं। जैसे हम दूसरों के लिए पैदा हुए हैं। और एक बार जीवन इस दिशा को पकड़ ले तो फिर अंत तक इसी के पीछे चलता चला जाता है। फिर वह सब करता है; अच्छा भी, श्रेष्ठतम भी करे तो भी उसकी दृष्टि निकृष्ट पर लगी होती है। मेरे एक परिचित और मित्र हैं, सेठ गोविंद दास । आज उनका वक्तव्य मैंने देखा । संसद में उनके पचास वर्ष पूरे हुए। पचास वर्ष तक निरंतर वे संसद के सदस्य थे। शायद ऐसा जमीन पर और कहीं कभी नहीं हुआ। संसद ने उनका सम्मान किया। सम्मान में उन्होंने जो वचन कहे वे इस संदर्भ में सोचने जैसे हैं । सम्मान के समय उन्होंने जो उत्तर में कहा, उन्होंने कहा कि मुझसे कम त्याग करने वाले लोग मुझसे ऊंचे पदों पर पहुंच गए हैं, मेरे साथ अन्याय हुआ है। कोई घाव होगा गहरा — मुझसे कम त्याग करने वाले लोग मुझसे ऊंचे पदों पर पहुंच गए हैं। तो जैसे त्याग पदों पर पहुंचने के लिए किया गया है। चाहे करते वक्त सचेतन रूप से उनको खयाल भी न रहा हो, लेकिन अचेतन में कहीं न कहीं पद छिपा रहा है। वह अभी भी पीछा कर रहा है। और त्याग को सम्मान नहीं मिला तो मेरे साथ अन्याय हुआ है, यह भी प्रतीति है । तो त्याग आंतरिक नहीं है, और त्याग किसी प्रसन्नता से नहीं निकला है। त्याग भी एक सौदा है। उसका प्रतिफल पूरा न मिले तो पीड़ा होती है। शहीदों को भी अगर हम कब्र से निकाल लें और उनसे पूछें, तो वे बहुत दुखी होंगे कि हम मर गए और तुमने हमारे पीछे क्या किया ? न कोई प्रतिष्ठा, न कोई पद, न कोई सम्मान । मरते वक्त चाहे सचेतन रूप से उन्हें खयाल न रहा हो, लेकिन सुना तो उन्होंने भी होगा कि शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले। वे मेले नहीं जुड़ रहे हैं। जहां उनकी लाशें दबी हैं वहां पीड़ा हो रही होगी- कि उन मेलों का क्या हुआ ? जो शहीद नहीं हुए उनके आस-पास मे जुड़े हुए हैं। त्याग भी आदमी करे तो भी नजर यह है कि दूसरे उसको कैसा आंकते हैं। दूसरों के आंकने पर ही मूल्य जिस बात का हो वह मूल्य आंतरिक नहीं है; वह मुझसे भीतर से पैदा नहीं हुआ, वह मेरे प्राणों का आविर्भाव नहीं है। नहीं तो बात खत्म हो गई थी। मुझे सुखद था, वह मैंने किया। मेरा आनंद था, वह मैंने किया। जीना था तो जीया और मरना था तो मरा । यह मेरी प्रतीति थी – सूली पर चढ़ जाना। यह कोई मेला जुड़ेगा मरने के बाद, उसके लिए नहीं था। लेकिन त्यागियों को पूछें तो भीतर वही घाव बना रहता है कि मैंने इतना छोड़ा। लाओत्से यह कह रहा है कि मनुष्य किसे अधिक प्रेम करता सुयश को या स्वयं की निजता को ? जो सुयश को प्रेम करता है वह राजनीति के रास्ते पर है; वह चाहे धन की राजनीति हो, चाहे पद की राजनीति हो, मगर पावर पालिटिक्स । उसका रास्ता सत्ता का है। और जो निजता को प्रेम करता है उसका रास्ता धर्म का है। जो इस बात की फिक्र करता है कि मैं क्या हूं मेरी ही आंखों में। क्योंकि मुझसे निकट मुझे कौन देख सकेगा? आप मुझे कैसे देखेंगे और कैसे पहचानेंगे ? आपकी सब पहचान थोथी होगी, उथली होगी, ऊपर से होगी। आपको धोखा दिया जा सकता है। मैं अभिनय कर सकता हूं; मैं भले होने का आचरण कर सकता हूं। आपको झुठलाया जा सकता है, आपको भ्रांति में डाला जा सकता है। लेकिन मैं अपने को खुद कैसे भ्रांति में डालूंगा? मैं अगर अच्छा हूं तो ही मेरे सामने मैं अच्छा हो सकता हूं। दूसरे के सामने तो धोखे का उपाय है, इसलिए दूसरे का कोई भी मूल्य नहीं है । दर्पण के सामने मैं खुद को कैसा प्रतीत होता हूं, अपने ही भीतर जाकर मैं अपने को कैसा पाता हूं, वही आत्यंतिक है।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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