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सर्वाधिक मूल्यवान - स्वयं की निजता
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और लाओत्से कहता है, 'किससे है ज्यादा प्रेम, सुयश से या स्वयं की निजता से ? किसका अधिक है मूल्य, स्वयं की निजता का या भौतिक पदार्थों का ?'
जिसकी नजरों में दूसरे के विचारों का बहुत मूल्य है, उसकी नजरों में भौतिक पदार्थों का भी बहुत मूल्य होगा। अभौतिक अनुभूतियों का मूल्य उसकी नजरों में ज्यादा नहीं होगा, क्योंकि अभौतिक अनुभूतियां दूसरों के सामने प्रदर्शित नहीं की जा सकतीं। मैं कितना शांत हूं, इसकी कोई भी प्रदर्शनी नहीं बनाई जा सकती। लेकिन मेरे पास कितना शानदार महल है, इसकी प्रदर्शनी निरंतर जारी रहती है। मेरे पास क्या है, उसे दूसरे देख सकते हैं; मैं क्या हूं, उसे तो कोई भी नहीं देख सकता। तो जिसकी भी नजर में दूसरे की नजर का मूल्य है, वह भौतिक पदार्थों के संग्रह में लीन रहेगा। और जितना ही कोई वस्तुओं को इकट्ठा करता है उतना ही भूलता चला जाता है कि वस्तुओं के अतिरिक्त भी मेरे भीतर कुछ था । और जितनी वस्तुओं का ढेर बढ़ता जाता है उतना ही अपने से संबंध टूटता चला जाता है। धीरे-धीरे हम करीब-करीब अपनी ही इकट्ठी की हुई वस्तुओं के पहरेदार हो जाते हैं। न सोते हैं, न जागते हैं, न जीते हैं; उन वस्तुओं का पहरा देते रहते हैं।
कहानियां हैं पुरानी कि कृपण आदमी मर जाए तो मर कर भी अपने खजाने पर सांप होकर बैठ जाता है। कहानी अर्थपूर्ण है। और कृपण आदमी के मन को हम समझें तो कहानी बिलकुल सच मालूम होती है । यही होगा । क्योंकि जिसने जिंदगी भर पहरा दिया वह मर कर एकदम पहरा नहीं छोड़ सकता। उसकी आत्मा को कुछ और करने योग्य नहीं मालूम हो सकता। वह पहरा देकर सांप होकर खजाने पर बैठ जाएगा, उसकी आत्मा प्रेत बन कर भटकेगी। जिंदगी भर उसने यही किया था। जब वह शरीर में था तब भी वह एक प्रेत की भांति था । तब भी वह 'अपनी तिजोरी के आस-पास घूम रहा था। तब भी उसके सारे प्राण तिजोरी में थे। उसके प्राण उसके हृदय में नहीं थे, उसके धन में थे; जो उसके पास था उसमें थे ।
' किसका अधिक मूल्य है, स्वयं की निजता का या भौतिक पदार्थों का ? और कौन बुराई बड़ी है, स्वयं की हानि या पदार्थों का स्वामित्व ?'
जीसस ने भी ठीक ऐसा वचन कहा है कि तुम सारी पृथ्वी को भी पा लो, लेकिन अगर तुमने खुद को खो दिया तो तुम्हारे पाने का मूल्य क्या है ? तुमने सारा साम्राज्य पा लिया, और इस पाने की दौड़ में तुम भूल गए उसे जो तुम थे, तो तुमने जो पाया उसे पाना कहें या खोना कहें? लेकिन आदमी किसी गहरी भ्रांति में है। भ्रांति के पैदा होने के कुछ बड़े गहरे कारण हैं। पहला, एक तो आपको यह भ्रांति होती है कि खुद को पाने का क्या सवाल है; खुद तो आप हैं ही। उसे आपने स्वीकार ही कर लिया है। जैसे जन्म के साथ ही आत्मा आपको मिल गई।
मिली है, लेकिन बीज की तरह; उसे वृक्ष बनाना आपके हाथ में है। और वह बीज की तरह ही सड़ जाए, इसकी भी संभावना है। इस सदी का बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति गुरजिएफ तो इनकार करने लगा था। वह कहता था, सभी आदमियों के पास आत्माएं नहीं हैं। उसकी बात में सचाई है। चौंकाने वाली बात है। क्योंकि वह कहता है, सभी आदमियों के पास आत्माएं नहीं हैं। आत्मा पैदा हो सकती है, लेकिन श्रम करना पड़ेगा। और कभी करोड़ में एकाध आदमी पैदा कर पाता है, बाकी तो वैसे ही मर जाते हैं। सिर्फ एक संभावना है आदमी की, आत्मा पैदा हो सके। बात सच है। आप सिर्फ एक बीज की तरह हैं जो वृक्ष बन भी सकता है और न भी बने।
लेकिन पूरब धर्मों ने प्रचार किया है कि सभी आदमियों के भीतर आत्मा है। इस प्रचार में सत्य था। क्योंकि जो संभव है, वह है । लेकिन इस सत्य से भी नुकसान हुआ। सारे लोग मान कर ही बैठ गए हैं कि जो भी है वह उनके भीतर है; कुछ करने जैसा नहीं है। संसार पाने योग्य है; आत्मा तो पाई ही हुई है। और जो पाया ही हुआ है, उसके लिए क्या चिंता करनी ? जो नहीं पाया है, उसकी हम फिक्र कर लें। तो हम दौड़ते हैं पदार्थ के लिए।