________________
सर्वाधिक मूल्यवान-स्वयं की निजता
आपको लगेगा, बिलकुल शून्य हो जाऊंगा; कुछ भी नहीं बचेगा। शायद जीने के लिए कोई सहारा भी नहीं बचेगा। जीने का कोई कारण भी मालूम नहीं पड़ेगा। क्योंकि कल तक धन को इकट्ठा करने के लिए जी रहे थे; अब धन को इकट्ठा करके क्या करिएगा? सारी पृथ्वी का धन आपका होगा, लेकिन इकट्ठा करके क्या करिएगा?
धन का रस धन में नहीं है। धन का रस उन लोगों में है जिनके पास आपसे कम धन है। धन का रस निर्धन में छिपा है। एक बड़ा महल आप बना रहे थे। अब सारे महल आपके होंगे; सारी पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। लेकिन ये सारे महल बेकार हैं। क्योंकि बड़ा महल तब सुख देता है जब पास में छोटा मकान हो। आप सिंहासनों पर बैठने के लिए दौड़ रहे थे। सिंहासन सब आपको उपलब्ध होंगे। सिंहासन के ऊपर सिंहासन, सिंहासन के ऊपर सिंहासन रख कर आप अकेले बैठ सकते हैं। लेकिन कोई भी रस न होगा, सिर्फ मेहनत मालूम पड़ेगी, पसीना बहता हुआ मालूम पड़ेगा, कोई सार मालूम नहीं होगा। क्योंकि सिंहासन पर होने का मजा तब है जब सिंहासन के नीचे कोई तड़फ रहा हो, सिंहासन को पाने के लिए कोई तड़फ रहा हो; कतार लगी हो लाखों लोगों की सिंहासन को पाने के लिए और आप पा लिए हों और दूसरे न पा सके हों। सिंहासन का रस दूसरों की आंखों में है।
निजता का अर्थ है: आप अगर सारा जगत न रह जाए तो जैसे होंगे। साधक, जगत के रहते हुए, इस भांति जीना शुरू करता है अपने भीतर कि जैसे जगत नहीं रह गया। और उन-उन बातों को छोड़ता जाता है, तोड़ता जाता है, जो दूसरों से संबंधित हैं, और सिर्फ उसको ही बचाता है जो सबके खो जाने पर भी बचेगा। वही निजता है, वही आत्मा है।
लाओत्से पूछ रहा है, मनुष्य किसे अधिक प्रेम करता है, सुयश को, या अपनी निजता को? दूसरों की आंखों में प्रतिष्ठा को, मान को, सम्मान को, या अपने होने को? किस बात को ज्यादा प्रेम करता है?
दूसरे मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है? या मैं क्या हूं, यह मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है? दूसरे भला माने तो मैं भला नहीं हो जाता; दूसरे बुरा मानें तो मैं बुरा नहीं हो जाता। मेरा होना दूसरों की मान्यताओं से बड़ी पृथक बात है। मैं दूसरों की मान्यताओं को मूल्य देता हूं सिर्फ इसलिए कि मुझे मेरी निजता का कोई पता नहीं है। और जिसको मैं अपनी निजता मान रहा हूं वह केवल दूसरों से मिला हुआ अहंकार है; दूसरों ने जो कुछ मेरे संबंध में कहा है उसी का संग्रह है। इसलिए बड़ा डर होता है। अगर आप साधु हैं तो आपको डर होता है कि कोई असाधु न कह दे। इस भय से न मालूम कितने लोग साधु बने रहते हैं कि कोई असाधु न कह दे।
लेकिन उनकी साधुता कैसी और कितनी कीमत की है? इसका कोई भी मूल्य नहीं। नपुंसक है ऐसी साधुता जो इससे डरती हो कि कोई असाधु न कह दे उधार है, मांगी हुई है; किसी और पर निर्भर है। इस साधुता की जड़ें अपने भीतर नहीं हैं। यह साधुता दूसरों की आंखों में बनाए हुए प्रतिबिंब का जोड़ है; बासी है, मुर्दा है। लेकिन साधु जितने डरते हैं कि कोई असाधु न कह दे, उतने असाधु भी नहीं डरते।
मनसविद कहते हैं कि चाहे आप साधु हों या असाधु, अच्छे हों या बुरे, आपकी नजर अगर दूसरे पर ही लगी हुई है, कि दूसरे क्या कहते हैं, तो आप अपने स्वयं से, अपनी सत्ता से अपरिचित ही रह जाएंगे। और लाओत्से पूछता है, प्रेम किस बात का है-लोगों के विचारों का या अपने शुद्ध अस्तित्व का? क्योंकि इन दोनों बातों पर निर्भर है आपके जीवन की दिशा।
एक बार आपने यह खयाल में ले लिया कि दूसरे मेरे संबंध में कुछ अच्छा कहें, दूसरे मुझे अच्छा मानें, तो आप झूठे से झूठे होते चले जाएंगे। आपका सारा जीवन एक लंबा पाखंड होगा। हजारों अच्छे लोगों का जीवन सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं है। क्योंकि एक मौलिक भूल हो गई है। प्राथमिक चौराहे से, जहां जीवन के रास्ते टूटते थे अलग-अलग, उन्होंने एक गलत दिशा चुन ली। पूरे समय इसकी फिक्र है कि दूसरा क्या कहेगा।
331