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________________ अस्तित्व अबस्तित्व से घिरा है जब भी कोई चेतनावान व्यक्ति को ऐसे सत्य चोट करते हैं उसके हृदय में तो वह इन्हें सुनता ही नहीं, वह इन्हें जीने के प्रयास में लग जाता है। श्रेष्ठता इसी से निर्धारित होती है कि सुन कर क्या वह अथक चेष्टा में लग जाता है कि इन सत्यों को जीए भी। क्योंकि जो सत्य जीने का आकर्षण न दे, उसे आप कितना ही सत्य कहें, आपने सत्य माना नहीं। जिस सत्य के अनुसार चलने की आकांक्षा पैदा न हो, अभीप्सा पैदा न हो, और जिस सत्य को जीवन में वास्तविक कर लेने का स्वप्न न जगे, आप कितना ही कहें कि यह सत्य है, आप उसे सत्य मानते नहीं। क्योंकि सत्य को सत्य की तरह मानने का अर्थ ही यह है कि उसी क्षण आपका जीवन उसके पीछे चलना शुरू हो जाएगा। अगर आप कहते हैं कि नहीं, यह सत्य है, और चलते आप वैसे ही जाते हैं जैसा इस सत्य को जानने के पहले चलते थे, तो आप सिर्फ धोखा दे रहे हैं। आप बेईमान हैं। आप यह भी सत्य नहीं कहना चाहते कि आपको यह बात सत्य नहीं मालूम पड़ती है। वह आदमी ज्यादा धार्मिक है जो जिस तरह जीता है, कहता है, यही सत्य है। वह आदमी ज्यादा अधार्मिक है जो जीता एक तरह है और सत्य कुछ और बताता है; और कहता है कि सत्य तो वही है, लेकिन मैं अभी उस पर चल नहीं पाता। ___ जो सत्य मालूम होगा, उस पर चलना ही होगा; चलना अनिवार्यता है। यह कैसे हो सकता है कि मझे दिखाई पड़ता हो कि दरवाजा यहां है और फिर भी मैं दीवार से निकलने की कोशिश करता रहूं! और कहता रहूं कि जानता हूं, दरवाजा तो वहां है, लेकिन क्या करूं, मैं यहीं से निकलना चाहता हूं! जैसे ही मुझे दिखाई पड़ गया कि यह दीवार है, निकलने का प्रयास बंद हो जाएगा। और जैसे ही मुझे दिखाई पड़ गया कि वह दरवाजा है, मेरे पैर उस तरफ उठने शुरू हो जाएंगे। आपके पैरों का उठना ही दरवाजे की तरफ बताएगा कि आपको दरवाजा दिखाई पड़ा है। और कोई प्रमाण नहीं है। तो लाओत्से कहता है, 'जब सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।' अथक! क्योंकि हममें से बहुत से चेष्टा भी करते हैं, लेकिन बड़े जल्दी थक जाते हैं। करते भी नहीं हैं, दो कदम भी नहीं चलते, और कहते हैं कि लंबी यात्रा है; वह अपनी दीवार से ही निकलना ठीक है, पास है। लेकिन कितने ही दूर हो दरवाजा, दरवाजे से ही निकला जा सकता है। और दीवार कितने ही पास हो तो भी उससे निकला नहीं जा सकता। और अगर आप निकल सकते होते तो कभी के निकल गए होते; पूरा जीवन आप उसी दीवार से निकलने की कोशिश करते रहे हैं। फिर-फिर वही कोशिश करते हैं, फिर-फिर भूल जाते हैं कि यहां से निकलने का उपाय नहीं है। फिर टकराते हैं, सिर में चोट लगती है। और जब स्वस्थ हो जाते हैं तो फिर उसी दीवार से निकलने की कोशिश करते हैं। स्वास्थ्य का उपाय इसीलिए करते हैं, ताकि और ताकत से उसी दीवार से निकलने की कोशिश करें। दरवाजा कितना ही दूर हो, दरवाजा ही दरवाजा है। दीवार कितनी ही पास हो तो भी दीवार है। अथक चेष्टा का अर्थ यह है कि बहुत बार शरीर कहेगा, थकान आती है। बहुत बार मन कहेगा, कहां की उलझन में पड़े हो! वहीं ठीक थे; कुछ चलना-फिरना तो नहीं पड़ता था। दीवार पास थी, उसी से टकराते रहते थे। और आशा थी, कभी न कभी निकल जाएंगे। लौट चलो! मन बहुत बार कहेगा, सत्य से वापस लौट चलो। क्योंकि असत्य सुगम मालूम पड़ता है। सुगम है नहीं, सिर्फ आदत के कारण सुगम मालूम पड़ता है-पुरानी आदत के कारण। एडिक्शन है, उसमें उलझे हैं। और इतने आदी हो गए हैं कि पता है इससे निकल नहीं सकते। कल भी क्रोध किया था आपने, परसों भी क्रोध किया था, आज भी क्रोध किया है। और क्रोध कर-कर के देख लिया है कि क्रोध से कोई निकलने का उपाय नहीं है, कहीं जाना नहीं होता, फिर वापस वहीं खड़े हो जाते हैं। फिर भी कल क्रोध करेंगे। और कितनी बार तय कर लिया कि क्रोध व्यर्थ है, फिर भी क्रोध करेंगे। क्रोध की आदत हो 237|
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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