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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ गई है। वह सुगम मालूम पड़ता है। पता ही नहीं चलता कब आ जाता है। उसे लाने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती, इसलिए सुगम मालूम पड़ता है। शांत होने के लिए चेष्टा करनी पड़ती है, इसलिए दुर्गम मालूम पड़ता है। जीवन की साधना इतनी दुर्गम मालूम पड़ती है कि हमने नाम तक-आपने सुना है-हमने, काली के भक्तों ने काली को एक नाम दे रखा है : दुर्गा। दुर्गा का मतलब है दुर्गम; जिसको पाया नहीं जा सकता। फिर भी पूजे जा रहे हैं और दुर्गा कहे जा रहे हैं, कि आशा नहीं है कि मिलना हो सके। निश्चित ही दुर्गम है। लेकिन दुर्गम सत्य नहीं है; हमारी आदतें गलत के लिए सुगम हो गई हैं। सत्य भी अथक चेष्टा करने से इतना ही सुगम हो जाएगा; इससे भी ज्यादा सुगम हो जाएगा। एक बार शांत होने की कला आ जाए तो क्रोध दुर्गा, दुर्गम मालूम पड़ेगा; क्रोध बहुत मुश्किल हो जाएगा। बुद्ध से कहो कि थोड़ा क्रोध करो! तो अगर बुद्ध क्रोध करें तो बड़ा ही कष्टपूर्ण होगा। इतनी मुसीबत होगी जितनी मुसीबत आपको शांत होने में होने वाली नहीं है। क्योंकि शांत होना तो आनंदपूर्ण है; और क्रोध करना दुखपूर्ण है। जब आपको आनंद की तरफ जाना कष्टपूर्ण मालूम पड़ता है, तो थोड़ा सोचें, बुद्ध को दुख की तरफ आना कितना कष्टपूर्ण मालूम पड़ेगा! आपके सामने अमृत रखा है और आप कहते हैं, पीना बहुत मुश्किल है। और बुद्ध के सामने आप जहर रख रहे हैं कि इसको पीओ। तो हम समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति एक बार शांति के आनंद के रस को ले लेगा, उसके लिए क्रोध और कठोरता बहुत दुर्गम हो जाएंगी। असंभव कहना चाहिए। आपके लिए सुगम मालूम पड़ती हैं, क्योंकि एक आदत है, लंबी आदत है। और आप करीब-करीब यांत्रिक, मशीन की तरह किए चले जाते हैं। 'जब सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, सत्य को सुनते हैं, तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।' आपके भीतर सर्वश्रेष्ठ का जन्म भी तभी होगा जब सत्य को जीने की अथक चेष्टा करें। मिट जाएं, टूट जाएं, लेकिन वापस न लौटें; जो ठीक दिखाई पड़ रहा है उसका अनुगमन करें। हां, दिखाई ही न पड़ रहा हो तब बात अलग। लेकिन दिखाई पड़े तो अनुगमन करें, उसके पीछे चलें, और कितना ही मूल्य चुकाना पड़े चुकाएं। क्योंकि कोई भी मूल्य उसका मूल्य नहीं है। और जिस दिन आपको उपलब्धि होगी उस दिन आप पाएंगे कि जो मैंने दिया वह कुछ भी नहीं था; मैंने सिर्फ कचरा दिया और हीरे पाए। ___ लेकिन अभी कचरे पर मुट्ठी बंधी है, और अभी कचरे में संपत्ति मालूम पड़ती है। उसे छोड़ने में डर लगता है। हीरा दूर है। और पता नहीं, इंद्रधनुष सिद्ध हो, पास जाएं और न मिले, और शर्त यह है कि इस कचरे को छोड़ें तो ही उसके पास पहुंच सकते हैं। तो बुद्धिमान हमारे बीच जो हैं वे कहते हैं, हाथ की आधी रोटी दूर की पूरी रोटी से ठीक है। वे बुद्धिमान जो हैं वे कहते हैं, हाथ की आधी रोटी दूर की पूरी रोटी से ठीक है। लेकिन मैं आपसे कहता हं, हाथ में आधी रोटी है ही नहीं, सिर्फ वहम है, सिर्फ खयाल है कि कुछ है। इस कुछ को गौर से देखें तो पाएंगे कुछ भी नहीं है। और इसे छोड़ना ही पड़े, असार को छोड़ना ही पड़े सार की यात्रा पर, असत्य को हटाना ही पड़े सत्य की तरफ बढ़ने के लिए। 'जब मध्यम प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं, तब वे उसे जानते से भी लगते हैं और नहीं जानते से भी।' आप में से अधिक की हालत ऐसी होती होगी कि लगता है समझे भी, और लगता है कहां समझे! बीच में अटक जाते हैं। मध्यम प्रकार के लोग सदा ही मध्य में अटक जाते हैं। उनको दोनों बातें मालूम पड़ती हैं। उनकी हालत बड़ी बुरी हो जाती है। उनकी हालत ऐसी हो जाती है कि आपने उस प्राचीन गधे की हालत सुनी होगी, जो दो घास के ढेरों के बीच में खड़ा था, बिलकुल मध्य में खड़ा था, और यह तय नहीं कर पाता था कि इस तरफ जाऊं कि इस तरफ जाऊं। भूख गहन थी, मगर दोनों ढेरियां बिलकुल एक बराबर दूरी पर थीं। एक क्षण इस ढेरी की तरफ झुकने को होता 238
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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