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________________ अस्तित्व में सब कुछ परिपुरक है जिनके बिना हम नहीं हो सकते, उनसे हमारे श्रेष्ठ होने का क्या अर्थ है? उनसे बड़े होने की बात बकवास है। जिन पर हम खड़े हैं, जो हमारा आधार हैं, उनसे हम बड़े क्या होंगे? तो जिस मालिक को यह दिखाई पड़ जाए कि मैं गुलामों पर निर्भर हूं, गुलामों के बिना मेरी मालकियत खो जाएगी, उसे बोध हुआ मालकियत के असली स्वरूप का। मालकियत और गुलामी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक साथ होंगे या दोनों एक साथ खो जाएंगे। बुद्ध ने कहा है कि अगर तुम्हें सच में ही स्वामित्व चाहिए हो, मालकियत चाहिए हो, तो न तो तुम किसी के मालिक बनना और न किसी को मालिक बनाना। लेकिन हम अक्सर सोचते हैं कि मालकियत का अर्थ यह है कि जितने ज्यादा लोग मेरे गुलाम हों उतना बड़ा मैं मालिक हूं। निश्चित ही, संसार की भाषा में आपके गुलामों की संख्या आपकी मालकियत का अनुपात है। लेकिन जिन गुलामों से आपकी मालकियत बढ़ रही है, मालकियत उन गुलामों पर निर्भर है। और ऐसी मालकियत का क्या मूल्य जो गुलाम पर निर्भर होती हो? ऐसी अमीरी का क्या अर्थ जो गरीब पर निर्भर होती हो? ऐसे सौंदर्य का क्या सार जो अपने खड़े होने के लिए कुरूपता का सहारा मांगता हो? लेकिन जीवन में हमें इसका खयाल नहीं आता। अमीर सोचता है, मैं अमीर हूं। उसे कभी भी खयाल नहीं आता कि अमीर वह तिजोड़ी में बंद धन के कारण नहीं, बल्कि उन गरीबों के कारण है जो उसे चारों तरफ घेरे हुए हैं। गरीबी पर निर्भर है उसकी अमीरी। सुंदर व्यक्ति को कभी खयाल नहीं आता कि मेरा सौंदर्य मेरे शरीर पर ही निर्भर नहीं है, उन शरीरों पर भी निर्भर है जिन्हें लोग कुरूप कहते हैं। बुद्धिमान को कभी खयाल नहीं आता कि उसकी बुद्धि उसकी अपनी बपौती नहीं है, उन लोगों पर भी निर्भर है जिन्हें लोग मूढ़ कहते हैं। विपरीत जुड़े हुए हैं, और एक-दूसरे के परिपूरक हैं। अगर आपको दिखाई पड़ जाए कि मेरी बुद्धिमत्ता मूढ़ों पर निर्भर है तो ऐसी बुद्धिमत्ता मूढ़ता का ही दूसरा छोर हो गई। तो या तो आप दोनों को स्वीकार कर लेंगे, और तब आप परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे। परम ज्ञान किसी के विपरीत नहीं है। परम ज्ञान का कोई परिपूरक नहीं है; वह अकेला है। जहां तक परिपूरक हैं, विपरीतताएं हैं, वहां तक संसार है, वहां तक अज्ञान है। या तो दोनों को स्वीकार कर लेंगे, या दोनों को अस्वीकार कर देंगे। झेन फकीर हुआ बोकोजू। बोकोजू के पास तरह-तरह के लोग आते थे। सम्राट भी आते, भिखारी भी आते, पंडित भी आते, मूढ़ भी आते। एक दिन एक सीधे-सादे आदमी ने आकर कहा कि मैं बहुत मूढ़ हूं और डरता था कि आपके पास आऊं या न आऊं। और भयभीत था, और बहुत वर्षों तक सोचा, फिर हिम्मत जुटा कर आया हूं। मैं बिलकुल मूढ़ हूं। तो बोकोजू ने कहा, चिंता मत ले; मेरा काम तो बराबर है, चाहे पंडित आए और चाहे मूढ़। क्योंकि पंडित को उसके पांडित्य से छुड़वाना पड़ता है, मूर्द को उसकी मूढ़ता से। और तू मूढ़ है, इसके पीछे अगर ठीक से समझे तो पंडित होने की महत्वाकांक्षा छिपी है। मूढ़ता का भाव, इसका अर्थ ही यह है कि पंडित होने की महत्वाकांक्षा छिपी है। और वह जो पंडित है, जिसको अकड़ है कि मैं पंडित हूं, वह अकड़ बता रही है कि यह आदमी कभी मूढ़ था और गहरे में अब भी मूढ़ है। . यह पांडित्य वस्त्रों की तरह इसकी मूढ़ता को ढांक लिया है। जैसे वस्त्र आदमी की नग्नता को ढांक लेते हैं। लेकिन वस्त्र किसी आदमी की नग्नता को मिटा तो नहीं सकते; आदमी वस्त्रों के भीतर तो नग्न होगा ही। ऐसे पांडित्य भी ढांक लेता है मूढ़ता को, लेकिन मूढ़ता मिटती नहीं। और इसलिए पंडितों की मूढ़ता सुसंस्कृत मूढ़ता होती है। साधारण मूढ़ की मूढ़ता प्रकट, नैसर्गिक मूढ़ता होती है। और इसलिए, बोकोजू ने कहा कि मुझे तो मेहनत बराबर ही करनी पड़ेगी। क्योंकि तू पंडित होने का आकांक्षी है। और जो पंडित हो गए हैं, वे मूढ़ न हो जाएं, इससे भयभीत हैं। पर तुम दोनों में कोई भेद नहीं। तुमने एक ही सिक्के के एक-एक पहलू को चुन रखा है। और यह पूरा सिक्का ही फेंक देने जैसा है। 211
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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