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ताओ उपनिषद भाग ४
मरते हैं। यह जो सुरक्षा हमने बना ली है झूठी, इसके कारण ऐसा लगता है कि जीवन चलता रहेगा, चलता रहेगा। एक वहम, एक आभास बना रहेगा। लेकिन हमारा सारा आयोजन झूठा है। हम कुछ भी करें, मौत आएगी ही।
तो एक तरफ तो ऐसे लोग हैं जो मौत से बचने का उपाय करते रहते हैं। ये वे ही लोग हैं कि अगर कोई ऐसी , दुर्घटना घटे कि इनको लगे कि मौत से बचा नहीं जा सकता या जीवन में कोई ऐसा आघात पहुंचे कि जीवन को पकड़ रखने की आशा टूट जाए, कि जीवन का रस क्षीण हो जाए, कि जीवन से जड़ें उखड़ जाएं-प्रेयसी मर जाए, कि दिवाला निकल जाए, कि मकान में आग लग जाए–तो ऐसा आदमी तत्क्षण मरने को उत्सुक हो जाते हैं, आत्मघात करने को उत्सुक हो जाता है। या तो हम जीवन चाहते हैं शाश्वत, और या हम मौत चाहते हैं अभी। दो में से सदा हम एक चुनते हैं। और ध्यान रहे, दोनों में कोई फर्क नहीं है। आप जीवन चुनें कि मौन चुनें, 'चुनाव हो गया कि संसार निर्मित हो गया। चुनाव संसार है। विकल्प को, एक को चुन लेना, दूसरे को छोड़ देना, जो कि उसका परिपूरक था, यही अज्ञान है। दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले कोई, जान ले कि जीवन एक छोर है, मौत एक छोर है, एक ही घटना का, एक ही यात्रा के दो पड़ाव हैं, प्रारंभ और अंत, वह मुक्त हो गया। रत्ती भर भी फर्क न हो। हम मुक्त होने के लिए अपने को समझा भी ले सकते हैं कि नहीं, हमें कोई फर्क नहीं। लेकिन फिर भी हमारा । मन डोलता रहेगा जीवन की तरफ।
मुल्ला नसरुद्दीन की दो पत्नियां थीं। एक पत्नी मरी तो उसने कब्र बनवाई सुंदर। फिर दूसरी पत्नी मरी तो उसने उसके ही पास, बीच में थोड़ी जगह छोड़ कर अपने लिए, दूसरी कब्र बनवाई। दोनों एक से संगमरमर की, एक सी सुंदर, एक सी कीमती। कब्र बनाने वाले कारीगर ने पूछा कि मुल्ला, क्या तुम दोनों को बराबर प्रेम करते थे? मुल्ला ने कहा, प्रेम तो बराबर ही करता था, लेकिन अगर तू किसी को बताए न तो एक बात तेरे को बता दूं कान में। मेरी कब्र बीच में बनाना और पहली पत्नी की तरफ थोड़ा सा झुका देना। ऐसे तो प्रेम बराबर करता था; किसी को पता भी न चले, पर जरा सा पहली पत्नी की तरफ झुका देना।
उतना झुकाव आपका भी बना रहता है। कितना ही सोच-समझ लें कि सब बराबर, लेकिन मौत जीवन के बराबर है, थोड़ा सा जीवन की तरफ झुकाव बना रहता है। और यह झुकाव अगर हट गया तो डर यह है कि मौत की तरफ यह झुकाव हो जाता है। लेकिन झुकाव बना रहता है। और झकाव खतरा है।
और या फिर दोनों का एक सा त्याग कर दें। कह दें कि दोनों बराबर हैं और दोनों में मुझे कोई भी रस नहीं।
इसलिए दो मार्ग हैं धर्म के। एक मार्ग है विराग। विराग का अर्थ है : दोनों का एक सा त्याग। और एक मार्ग है राग। राग का अर्थ है : दोनों का एक सा स्वीकार। विराग की यात्रा योग के नाम से जानी जाती है; राग की यात्रा तंत्र के नाम से जानी जाती है। दोनों का एक सा स्वीकार तंत्र है। दोनों का एक सा अस्वीकार योग है। लेकिन दोनों का परिणाम एक है। क्योंकि दोनों स्थितियों में झुकाव खो जाता है, चुनाव खो जाता है। आप सम हो जाते हैं।
लाओत्से के सूत्र को समझें।
'इसलिए अभिजात वर्ग सहारे के लिए साधारण जन पर निर्भर है; और उच्चस्थ जन आधार के लिए निम्नस्थ पर निर्भर है।'
सम्राट है कोई। सम्राट अकेला नहीं हो सकता; प्रजा चाहिए। जैसे-जैसे प्रजा कम होती जाएगी सम्राट का सम्राटपन कम होता जाएगा। प्रजा शून्य हो जाएगी, सम्राट शून्य हो जाएगा। तो सम्राट का होना प्रजा पर निर्भर हुआ। वे जो नीचे दिखाई पड़ते हैं, वे ही भिक्षा दे रहे हैं सम्राट को सम्राट होने की। काश, यह सम्राट को दिखाई पड़ जाए तो सम्राट होने का झुकाव और रस खो जाए। क्या रस है फिर? मालिक को अगर यह दिखाई पड़ जाए कि गुलामों के कारण ही मैं मालिक हूं! इसका अर्थ हुआ कि मालकियत गुलामों की गुलामी है। क्योंकि जिन पर हम निर्भर हैं और
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