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________________ अस्तित्व में सब कुछ परिपूरक है लेकिन यह अंतर्दृष्टि बड़ी अर्थपूर्ण है, और उसके जीवन में परिणाम क्रांतिकारी होंगे। और हमारा मन सदा ही इस विपरीत में से एक को बचा लेना चाहता है। वह हमारी आकांक्षा ही संसार है। और जिस दिन हम यह समझ लेते हैं कि इन दो में से एक को बचाया नहीं जा सकता, या तो दोनों बचेंगे, इसलिए दोनों को स्वीकार कर लो समान भाव से, सम-भाव से, समत्व से; और या दोनों चले जाएंगे तो दोनों का त्याग कर दो समभाव से, समत्व से; चुनाव मत करो। या तो जीवन और मृत्यु दोनों को एक सा अंगीकार कर लो; एक सा स्वागत, एक सा अहोभाव। जरा भी, रत्ती भर भी फर्क किया कि संसार निर्मित हो जाता है; जरा सा चाहा कि जीवन ज्यादा और मृत्यु कम कि संसार निर्मित हो जाता है। या फिर दोनों का ही त्याग कर दो। कहो कि न जीवन का आग्रह है, न मृत्यु का आग्रह है। लेकिन हमें दोनों कठिन हैं। हम या तो जीवन का आग्रह रखते हैं। तो हम चाहते हैं, मृत्यु न हो। तो हम मृत्यु को टालते हैं, झुठलाते हैं, भुलाते हैं, सिद्धांत निर्मित करते हैं जिनके धुएं में मृत्यु हमें दिखाई न पड़े और हमारी आंखें अंधी हो जाएं। मृत्यु से डरा हुआ आदमी मान लेता है कि आत्मा अमर है। जरा भी तर्क नहीं करता, जरा भी विचार नहीं करता, जरा भी प्रमाण की तलाश नहीं करता। मृत्यु से डरा हुआ आदमी मान लेता है कि आत्मा अमर है। वह मृत्यु को अस्वीकार करने का उपाय है। इसलिए जवान आदमी आत्मा की अमरता में उतना भरोसा नहीं करता; बूढ़ा आदमी ज्यादा भरोसा करता है। जैसे-जैसे मौत करीब आती है, आत्मा की अमरता ज्यादा सही मालूम पड़ने लगती है। वह मौत के डर के कारण। छोटे बच्चे को कोई फिक्र ही नहीं है कि आत्मा अमर है या नहीं; उसे चिंतना भी पैदा नहीं होती। अभी उसे मृत्यु का बोध ही नहीं है। अभी मृत्यु का भय प्रविष्ट नहीं हुआ तो आत्मा की अमरता की जरूरत क्या है? अभी जन्म इतना निकट है और मृत्यु इतनी दूर है कि उसकी छाया भी नहीं पड़ती। मृत्यु को भुलाने के हम सब तरह के उपाय किए हैं। मरघट हम बनाते हैं गांव के बाहर कि वह जाते-आते दिखाई न पड़ जाए। जैसे जिंदगी एक बात है; मौत को हम ढकेल कर बाहर कर देते हैं गांव के, त्याज्य। उधर हम कभी जाते नहीं। उधर कभी किसी को विदा करने जाते हैं। और जब किसी को विदा करने जाते हैं तब भी बड़ी बेचैनी होती है। और जब लोग किसी को विदा करने जाते हैं, वहां उनकी बैठ कर आप बातें सुनें। वहां कोई जल रहा होता है और वे बैठ कर गपशप करते हैं, गांव की निंदा-चर्चा करते हैं, या समझदार हुए तो आत्मा की अमरता की बात करते हैं। लेकिन वह जो मौत वहां घट रही है वह उनके भीतर ज्यादा छाया न डाले, इसके प्रति सचेत रहते हैं। छोटे बच्चे खेल रहे हों बाहर और लाश निकलती हो तो मां अंदर बुला लेती है-भीतर आ जाओ! मुर्दा दिखाई न पड़े। और सभी को मुर्दा होना है। और जो सत्य इतना जरूरी है, अनिवार्य है, उसे दिखाने से बचाने का मोह क्या है? हम चाहते हैं कि मौत का हमें पता न चलें, किसी भी भांति हमें उसका स्मरण न आए। हम सब तरह का इंतजाम करते हैं अपने आस-पास, जहां मौत नहीं घटती, जहां चीजें थिर हैं। उन थिर चीजों से लगता है कि हम भी थिर रहेंगे। धर्म पर, आत्मा की अमरता पर आस्था कम हुई है इधर दो-तीन सौ वर्षों में। बहुत कारणों में एक कारण यह भी है कि आदमी उस प्रकृति से बहुत दूर रहने लगा है जहां मौत रोज घटती है। . एक किसान है, तो मौत रोज दिखाई पड़ेगी। कभी वृक्ष सूख कर मर जाएगा; कभी कोई पक्षी वृक्ष से गिर कर मर जाएगा; कभी कोई जानवर मरा हुआ पड़ा होगा। मौत रोज होगी। और गांव इतना छोटा है कि कोई भी मरे तो उसके घर में ही कोई मरा, ऐसा लगेगा। मौत से बचा नहीं जा सकता। लेकिन फिर अब नए शहर हैं। उन नए शहरों में गांव इतना बड़ा है कि कितने ही लोग मरते रहें, आपके लिए कोई नहीं मरता; जब तक कि कोई बहुत निकट न मर जाए। आप ऐसे घर में घिरे हुए रहते हैं सीमेंट-कंकरीट में, जहां न कोई पक्षी मरता, न कोई पौधा मरता, न कोई जानवर मरता, मौत का कोई पता ही नहीं चलता। सुरक्षित सब तरफ से! कभी-कभी मौत प्रवेश करती है। कोई निकट का मर जाता है। तो निकटता भी हमने बहुत कम कर ली है; निकट कोई है ही नहीं। इसलिए दूर के ही लोग 209
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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