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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ लेकिन शायद आप सोचते हों, ऐसा होने की क्या जरूरत है? अंधेरा हट सकता है। प्रकाश अकेला क्यों नहीं हो सकता? वैज्ञानिक से पूछे। वैज्ञानिक कहता है कि सभी ऊर्जाएं निगेटिव और पाजिटिव हों तो ही हो सकती हैं; नकारात्मक और विधायक हों तो ही हो सकती हैं। धन विद्युत, पाजिटिव इलेक्ट्रिसिटी बच नहीं सकती, अगर ऋण विद्युत न हो, निगेटिव विद्युत न हो। नकार के खोते ही विधायक भी खो जाएगा। तो वैज्ञानिक कहता है कि अंधेरा शीर्षासन करता हुआ प्रकाश है, उलटा खड़ा हुआ प्रकाश है। वह प्रकाश ही है, लेकिन उलटा खड़ा हुआ है। धागे आड़े रख दिए गए हैं, तिरछे रख दिए गए हैं, ताकि बुनावट हो सके। जन्म है। और कितनी हम आकांक्षा करते हैं कि जन्म हो, जीवन हो, लेकिन मृत्यु न हो। लेकिन तब हमें जीवन के रहस्य का कोई पता नहीं। इसलिए हम ऐसी व्यर्थ की कामना करते हैं। ज्ञानी, मृत्यु न हो, ऐसी कामना नहीं करता। क्योंकि मृत्यु के बिना जीवन के होने का कोई उपाय ही नहीं है। अगर ज्ञानी कामना भी करता है तो वह कहता है, मृत्यु भी न हो, जीवन भी न हो। क्योंकि ये दोनों द्वंद्व हैं। तीसरा सत्य होगा, जिसको आड़ा और सीधा रख कर कपड़े की बुनावट हुई है। आवागमन से मुक्ति मृत्यु से मुक्ति नहीं है, जीवन और मृत्यु दोनों के द्वंद्व से मुक्ति है। ताकि हम उस एक को खोज लें जो दो के पीछे छिपा है। _ जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मृत्यु के बिना जन्म नहीं हो सकता। जन्म के बिना तो मृत्यु के होने का कोई उपाय नहीं है। और जिस दिन आदमी मरना बंद कर देगा, उसी दिन जन्मना भी बंद हो जाएगा। दोनों एक साथ जुड़े हैं। इसलिए जितनी चेष्टाएं चलती हैं कि आदमी शरीर में अमृत को उपलब्ध कर ले, वे सब व्यर्थ हो जाती हैं। हजारों साल से आदमी खोजता है, अल्केमिस्ट खोजते हैं, कोई अमृत, कोई ऐसी धातु, कोई ऐसा रस जिससे आदमी अमर हो जाए। लेकिन वे सारी खोजें व्यर्थ हो जाती हैं। आदमी अमर नहीं हो सकता, क्योंकि जन्म के साथ ही मृत्यु प्रविष्ट हो गई। जन्म का तनाव मृत्यु की पृष्ठभूमि में ही निर्मित होता है, अन्यथा निर्मित नहीं हो सकता। वसंत है, क्योंकि पतझड़ है; बचपन है, क्योंकि बुढ़ापा है; पुरुष है, क्योंकि स्त्री है; स्त्री है, क्योंकि पुरुष है। वह जो विपरीत है, सदा मौजूद है। तो विपरीत उसे कहना कहां तक उचित है? लाओत्से उसे विपरीत नहीं कहता, अपोजिट नहीं कहता; लाओत्से उसे परिपूरक कहता है, कांप्लीमेंटरी कहता है। विपरीत कहना हमारी भूल है। क्योंकि जिसके बिना हम हो ही न सकें उसे विपरीत कहने का क्या अर्थ है? परिपूरक! उसके सहारे ही हम हो सकते हैं। प्रेम करते हैं आप। आदमी की कामना है कि प्रेम ऐसा हो, हृदय ऐसा प्रेमपूर्ण हो कि वहां घृणा का कोई स्वर न रह जाए। लेकिन बिना घृणा के प्रेम नहीं हो सकता। और जो आदमी घृणा करना बंद कर देता है, जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह भी उसके जीवन से तिरोहित हो जाएगा। हम चाहते हैं आदमी में करुणा हो, क्रोध न हो। लेकिन जिसके जीवन से क्रोध विसर्जित हो जाएगा, हम जिसे करुणा कहते हैं, वह भी विसर्जित हो जाएगी। क्योंकि क्रोध करुणा का परिपूरक है; वे सदा साथ हैं। इस जगत में द्वंद्व अस्तित्व का ढंग है। और दो में से एक को भी छोड़ दें तो दूसरा भी छूट जाता है। दोनों के छूट जाने पर जो बचता है वह तीसरा है। वह वही एक है जिसको लाओत्से ताओ कहता है। जहां दोनों विसर्जित हो जाते हैं वहां उन दोनों के नीचे छिपा हुआ आधार; जो दोनों में था, जो दोनों का प्राण था, जिसकी धारा से ही दोनों जीते थे और जीवन पाते थे, वह प्रकट हो जाता है। परिपूरक का सिद्धांत, लाओत्से की बड़ी कीमती देन है। और संभवतः लाओत्से पहला व्यक्ति है मनुष्य-जाति के इतिहास में जिसने विपरीत की धारणा को बिलकुल ही त्याग दिया और परिपूरक की धारणा को जन्म दिया। जगत में, उसने कहा, विरोध देखो ही मत, क्योंकि एक ही ऊर्जा का खेल है। इसलिए विरोध हो नहीं सकता। हो भी तो आभास होगा, दिखता होगा; थोड़ी गहरी समझ होगी, विसर्जित हो जाएगा। 208|
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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