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________________ स एक को जो जान लेता है उसे कुछ भी अनजाना नहीं रह जाता। लेकिन इस जगत में सदा ही दो के दर्शन होते हैं। यहां एक कुछ भी नहीं है। यहां जो भी है दो है। इसलिए ही उस एक की बात लोग सुनते हैं, लेकिन समझ नहीं पाते। इसलिए ही उस एक की सनातन से चिंतना चलती है, लेकिन उसकी साधना नहीं हो पाती। इस दो के जगत में उस एक की बात स्वप्न जैसी मालूम होती है। जहां दो का होना सत्य है, प्रगाढ़ सत्य है, वहां एक आदर्शवादियों के मन की धारणा, कोई उटोपिया, कोई स्वर्ग की परिकल्पना, कोई स्वप्न प्रतीत होता है। और जिन्होंने उस एक को जान लिया है वे हमारे इस दो के जगत को माया कहते हैं। और जो दो को ही जानते हैं और सिर्फ दो से ही परिचित हैं वे उस एक के जगत को स्वप्न से ज्यादा नहीं मान पाते। उस जगत और इस जगत के बीच कोई सेतु खोजना जरूरी है; अन्यथा यात्रा न हो सकेगी। उस सेतु की ही लाओत्से चर्चा कर रहा है। __ लाओत्से का कहना है और जो भी जानते हैं उन सबका यही कहना है कि इस दो के जगत में भी अगर हम थोड़ी गहरी खोज-बीन करें तो हम एक को ही पाएंगे। जहां दो बिलकुल विपरीत दिखाई पड़ते हैं; वहां भी विप( रीतता ऊपरी है, भीतर वे एक ही होते हैं। सच तो यह है कि जीवन का ताना-बाना बुनने को हमें धागे आड़े और सीधे रखने पड़ते हैं। वे सभी धागे हैं; सिर्फ आड़े और तिरछे रखने से वस्त्र की बुनावट निर्मित हो जाती है। वस्त्र में धागे दो मालूम पड़ते हैं, एक-दूसरे के विपरीत, एक-दूसरे से तने हुए, खिंचे हुए, एक-दूसरे से लड़ते, संघर्ष करते हुए। धागा एक है, लेकिन वस्त्र की बुनावट के लिए उन्हें विपरीत रखना जरूरी है। इस जीवन की बुनावट में भी धागा एक है। लेकिन जीवन का जाल निर्मित नहीं हो सकता, अगर उस एक धागे को ही हम विपरीत खड़ा न करें। जैसे राज भवन निर्माण करता है तो द्वारों पर विपरीत ईंटें लगा देता है। ईंट एक है, लेकिन एक-दूसरे के विरोध में लग जाने पर वही ईंट परम शक्तिशाली हो जाती है। उस विरोध से शक्ति, ऊर्जा जन्मती है। और बड़े से बड़ा भवन भी उस द्वार के ऊपर निर्मित हो सकता है। . तत्व एक है। उपनिषद उसे ब्रह्म कहते हैं। और लाओत्से उसे ताओ कहता है। धर्म, स्वभाव, प्रकृति, जो भी हम नाम देना चाहें, वह एक है। लेकिन जीवन के खेल के लिए वह विपरीत भासता है। यह विपरीत भासना भी बिलकुल ऊपर है। थोड़ी यात्रा गहरे में करें तो सभी विपरीत के भीतर एक समता, एकरसता उपलब्ध होती है। हम चाहते हैं जगत में प्रकाश हो, लेकिन अंधेरे के बिना प्रकाश के होने का कोई उपाय नहीं है। तो अंधेरा प्रकाश का विरोधी नहीं है, अंधेरा प्रकाश का सहयोगी है। क्योंकि उसके होने पर ही प्रकाश हो सकता है। शत्रुता हमें दिखाई पड़ती हो, लेकिन अंधेरा पृष्ठभूमि है। उसका ही सहारा चाहिए प्रकाश को होने के लिए। अंधेरे को हटा लें, प्रकाश भी तिरोहित हो जाएगा। 207
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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