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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ लेकिन कोयस्लर का खयाल कुछ नया नहीं है, उसकी भाषा भला नई हो। ईसाइयत तो बहुत समय से कह रही है कि आदमी मूल पाप में पैदा हुआ। अदम ने जो भूल की थी, उस भूल का फल सारे लोग भोग रहे हैं। अदम ने जो पाप किया था उससे मनुष्य बहिष्कृत हो गया स्वर्ग के राज्य से, सुख के राज्य से, और दुख के जीवन में प्रविष्ट हो गया। अदम ने जो भूल की थी, अदम के बेटों को, आदमी को भोगनी पड़ रही है। तो बहुत पुराना खयाल है। इसकी भाषा हम बदल दें, वैज्ञानिक कर दें, कि मनुष्य के मन में कोई रुग्णता हो गई मूल में। पुरानी कथा पुराने ढंग से कहती है यही बात कि कहीं कोई भूल हो गई पहले आदमी के साथ, अदम के साथ, और उस भूल का हम सब फल भोग रहे हैं। इस विचार ने पश्चिम को विकृति का द्वार उन्मुक्त कर दिया। तब आदमी कुछ भी करे, दोष अदम का है। और वह दोषी आदमी इतना दूर है कि अब उसको बदलने का कोई उपाय भी नहीं, वह कहीं है भी नहीं। तो हमें तो इसी पीड़ा में जीना ही पड़ेगा। लेकिन लाओत्से ऐसा नहीं मानता। और न पूरब के किसी और मनीषी की ऐसी मान्यता है। पूर्वीय मान्यता बिलकुल भिन्न है। और वह यह है कि मनुष्य पैदा तो बिलकुल स्वभाव में ही होता है, सब मनुष्य स्वाभाविक पैदा होते हैं, कोई मनुष्य विकृत पैदा नहीं होता; लेकिन विकृति की एक प्रक्रिया से उसे गुजरना पड़ता है। और वह गुजरना शिक्षण के लिए जरूरी है। कुछ लोग उस प्रक्रिया में ही अटक जाते हैं और पार नहीं हो पाते। कुछ लोग प्रक्रिया को पूरा कर लेते हैं; शिक्षण पूरा हो जाता है और पार हो जाते हैं। इसे हम ऐसा समझें। सभी लोग बच्चे की तरह पैदा होते हैं; कोई आदमी बुजुर्ग की तरह पैदा नहीं होता। सुना है मैंने, एक गांव में किसी यात्री ने गांव के एक बूढ़े आदमी से पूछा-यात्री पर्यटक था और गुजरता था गांव से, गांव के संबंध में जानकारी चाहता था—उसने पूछा कि तुम्हारे गांव के इतिहास के संबंध में कुछ मुझे बताओ; कभी कोई बड़ा आदमी यहां पैदा हुआ है? उस बूढ़े ने कहा, नहीं, यहां तो सभी बच्चे पैदा होते हैं। यहां कोई बड़ा आदमी कभी पैदा नहीं हुआ। सभी बच्चे पैदा होते हैं। लेकिन बचपन एक अवस्था है जिससे गुजर जाना चाहिए, जिससे पार हो जाना चाहिए। बहुत कम लोग पार हो पाते हैं। पिछले महायुद्ध में अमरीकी सैनिकों का परीक्षण किया गया मनोवैज्ञानिक। उनकी औसत मानसिक उम्र तेरह वर्ष पाई गई। तेरह वर्ष मानसिक उम्र! शरीर आगे निकल जाता है, मन कहीं अटक जाता है पीछे। सामान्य आदमी की मानसिक उम्र तेरह वर्ष है, चाहे उसके शरीर की उम्र सत्तर वर्ष हो। जैसे ही मनुष्य कामवासना से पीड़ित होता है, लगता है, उसकी प्रतिभा रुक जाती है। क्योंकि चौदह वर्ष के करीब आदमी कामवासना से पीड़ित होता है, और जैसे उसके जीवन की सारी ऊर्जा मस्तिष्क से हट कर काम-केंद्र की तरफ प्रवाहित हो जाती है। इसलिए अगर पूरब के मनीषी इस चेष्टा में रहे कि पच्चीस वर्ष तक युवक वनों में रहें और कामवासना उन्हें न पकड़े, और अगर उन्होंने इस अनुभव और इस प्रयोग के द्वारा ऐसा पाया था कि पच्चीस वर्ष तक अगर युवकों को कामवासना से पार रखा जा सके तो उनकी प्रतिभा परी विकसित हो जाती है। वह जो ऊर्जा कामवासना बन कर बहती है वह ऊर्जा पूरी की पूरी उनके जीवन के फूल को खिला देती है। अभी, आपको शायद पता न हो, अमरीका में हर वर्ष बच्चों की कामुकता की उम्र कम होती चली जाती है। कुछ वर्षों पहले तक पंद्रह वर्ष कामवासना के जन्म की उम्र थी। फिर चौदह वर्ष हो गई, फिर तेरह वर्ष हो गई। अब बारह वर्ष औसत उम्र हो गई। अमरीका के मनोवैज्ञानिक चिंतित हैं कि अगर इस तरह गिराव हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं है कि यह और नीचे गिर जाए। और जितना यह गिराव होता चला जाता है उतनी ही मानसिक उम्र भी कम होती चली जाती है। तो अगर आज अमरीका के युवक विक्षिप्त मालूम पड़ रहे हैं तो उसका एक कारण तो यह भी है कि उनकी मानसिक उम्र नीचे गिरती जा रही है। 172
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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