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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 156 लेकिन मजबूरियां हैं। उसे उतारने में महंगा पड़ता है। बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं, वे टूटते हैं, जिंदगी में असुरक्षा आती है, इसलिए उसे ढोए रखना उचित है। और फिर धीरे-धीरे आप बोझ के आदी हो जाते हैं। फिर तो अगर कोई कहे भी कि यह बोझ उतार दो तो दुश्मन मालूम पड़ता है। क्योंकि बोझ लगता है संपत्ति है। जो चरित्र आपने समाज को ध्यान में रख कर पैदा कर लिया है, वह संपत्ति नहीं है, बोझ है। उस चरित्र की तलाश करनी जरूरी है जो जीवन की धारा के साथ एकता खोजता है। लाओत्से उसी जीवन के नियम को ताओ कहता है। 'घटिया चरित्र वाला मनुष्य चरित्र बचाए रखने पर तुला है, इसलिए वह चरित्र से वंचित है। श्रेष्ठ चरित्र वाला मनुष्य कभी कर्म नहीं करता है।' श्रेष्ठ चरित्र का अर्थ ही है, जो आपके भीतर जन्म गया। आप इसलिए सच नहीं बोलते कि सच बोलने से समाज में प्रतिष्ठा होगी; इसलिए भी सच नहीं बोलते कि सच बोलने वाला कभी जेल नहीं जाएगा; इसलिए भी सच नहीं बोलते कि नरक से बच जाएंगे, स्वर्ग जाएंगे। बल्कि इसलिए सच बोलते हैं कि सच बोलने में आपने जीवन का आनंद अनुभव किया है- भविष्य में नहीं, अभी, इसी क्षण। जब आप सत्य बोलते हैं तो आप जीवन के निकटतम होते हैं, उसकी धारा के साथ एक होते हैं। जब भी झूठ बोलते हैं तब धारा से टूट जाते हैं। यह एक भीतरी अनुसंधान है। जब भी आप सत्य बोलते हैं तब आप निर्बोझ होते हैं, निर्दोष होते हैं, हलके होते हैं, मुक्त होते हैं। न कोई अतीत होता है, न कोई भविष्य होता है। जब भी आप झूठ बोलते हैं तो अतीत होता है, भविष्य होता है; समाज होता है । फिर इस झूठ को बचाए रखना पड़ेगा। एक झूठ के लिए फिर हजार झूठ बोलने पड़ेंगे और उसके लिए निरंतर खयाल रखना पड़ेगा कि आपने कहां झूठ बोला, क्या झूठ बोला। फिर उस झूठ से विपरीत कुछ न बोल जाएं, इसकी सतत जागरूकता रखनी पड़ेगी। तो झूठ एक चिंता बन जाएगी। लाभ उसमें हो सकता है। लेकिन वह लाभ, जो चिंता उससे पैदा होती है, उसके समक्ष कुछ भी नहीं। वह चिंता बहुत भयंकर है। और बड़ा जो उपद्रव है वह यह है कि जितना इस झूठ में आप व्याप्त होते जाएंगे उतना जीवन की धारा से दूर हटते जाएंगे। क्योंकि जीवन की धारा सत्य है । तो जब कोई सत्य बोलता है समाज को ध्यान में रख कर, तब उसके सत्य का कोई मूल्य नहीं है। वह भी एक प्रकार का झूठ है। इसे थोड़ा समझने में कठिनाई होगी। इसे इस तरह समझना जरूरी है कि आप झूठ क्यों बोलते हैं ? इसीलिए कि उससे कुछ लाभ होगा। अगर लाभ सच बोलने से होता हो तो आप सच भी बोलते हैं। लेकिन ध्यान लाभ पर है। तो झूठ और सच में बहुत फर्क नहीं है। अगर आपको लगता है कि हां झूठ बोल कर निकल जाऊंगा उपद्रव से तो आप झूठ बोलते हैं। अगर आपको लगता है कि सच बोल कर निकल जाऊंगा उपद्रव से तो आप सच बोलते हैं। लेकिन दोनों ही हालत में दृष्टि आपकी उपद्रव के बाहर होने की है। दोनों समान हैं। सत्य भी एक साधन है, झूठ भी एक साधन है। लक्ष्य एक है। लेकिन जो व्यक्ति इसलिए सत्य बोलता है-न तो हानि का सवाल है, न लाभ का । और ध्यान रहे, जरूरी नहीं है कि सत्य में सदा लाभ ही हो। जो लोग यह सिखलाते हैं कि सत्य में सदा लाभ ही होगा, वे भी आपके लाभ को ही ध्यान में रख कर ये बातें कह रहे हैं। भारत ने अपना राष्ट्रीय प्रतीक बना रखा हैः सत्यमेव जयते ! सत्य सदा जीतता है। ऐसा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन लोग जीत में उत्सुक हैं, सत्य में उत्सुक नहीं हैं। अगर सत्य जीतता हो तो लोग सत्य में भी उत्सुक हो सकते हैं। नहीं तो उसमें उनकी कोई उत्सुकता नहीं है। अगर पक्का पता चल जाए कि असत्य ही जीतता है तो लोग असत्य बोलेंगे। लोगों का रस जीत में है, सत्य में नहीं है।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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