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श्रेष्ठ चनिन और घटिया चरित्र
चरित्र-नैतिक चरित्र, ऊपरी चरित्र-जो समाज में कुशलता से जीने की कला है, वह ऊपर से थोपा हुआ है। भीतर आदमी बिलकुल उलटा होगा। तो जो आदमी बहुत ब्रह्मचर्य की चर्चा करे, समझना कि कामवासना भीतर गहरे में खड़ी है। जो आदमी सत्य की बहुत बात करे, समझना कि झूठ बोलने की तैयारी कर रहा है। उलटे का ध्यान रखना। उलटा जरूर भीतर होगा, उसी को छिपाने के लिए इतना आयोजन किया जा रहा है। उसी को भुलाने के लिए। हो सकता है आपको ही धोखा देने की चेष्टा न हो, खुद को धोखा देने की चेष्टा हो। वह खुद ही भूल जाना चाहता हो।
पश्चिम के मनसविद, जिन्हें आप साधु-संन्यासी कहते हैं, उनके संबंध में बड़ी हैरानी से सोचते हैं। क्योंकि आपके साधु-संन्यासी ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य की रट लगाए रखते हैं। पश्चिम के मनसविद कहते हैं कि इतनी रटन का एक ही अर्थ हो सकता है कि भीतर कामवासना जोर से धक्के मार रही है। नहीं तो यह रटन खो जाएगी। कामवासना भीतर न होगी तो यह ब्रह्मचर्य की रटन किस चीज को छिपाने, किस चीज को मिटाने, किस चीज के ऊपर आवरण खड़ा करने के लिए होगी? यह भी खो जाएगी।
जब चरित्र पूरा होता है तो नीति खो जाती है, धर्म ही रह जाता है। नीति है दूसरे को देख कर अपने व्यवहार को अनुशासित करना, और धर्म है जीवन के परम नियम के साथ बहना। दूसरे को देखने का कोई सवाल नहीं। इसलिए धार्मिक आदमी अक्सर विद्रोही होगा; और नैतिक आदमी अक्सर कंजर्वेटिव होगा, व्यवस्था के साथ हमेशा राजी होगा। क्योंकि उसकी सारी नीति व्यवस्था के साथ अनुरूप होने की है। वह व्यवस्था से जरा भी इधर-उधर नहीं जाना चाहता। क्योंकि व्यवस्था में रह कर ही शोषण हो सकता है, व्यवस्था में रह कर ही सफलता हो सकती है, व्यवस्था में रह कर ही अहंकार की तृप्ति हो सकती है। धार्मिक आदमी अक्सर व्यवस्था के अनुकूल नहीं पड़ेगा। क्योंकि वह एक महान नियम के अनुकूल हो रहा है। मनुष्यों के बनाए हुए नियम अब छोटे पड़ गए। उनसे ताल-मेल बैठ भी सकता है, नहीं भी बैठे।
मैं इसको कसौटी मानता हूं कि जब बुद्ध जैसे या जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म हो, या कृष्ण या लाओत्से जैसे व्यक्ति का जन्म हो, तो लाओत्से या कृष्ण या बुद्ध के साथ जिस समाज का तालमेल बैठ जाए वह समाज धार्मिक है, और अगर न बैठे तालमेल तो वह समाज अधार्मिक है। आपका तथाकथित साधु-महात्मा, उसका तालमेल समाज से बिलकुल बैठा होता है। वह तो बिलकुल ऐसा बनता है जैसे कि बिजली का प्लग बिलकुल बैठ जाता है। बनाया ही गया है जैसे समाज के लिए। बिलकुल बैठ जाता है। सांचे में ढाला हुआ है। जो महात्मा समाज के साथ ऐसा बैठ जाता है जैसा सांचे में ढाला हो, उसका धर्म से कोई संबंध नहीं है; नीति से जरूर संबंध है। उसने सब भांति अपने को काट-छांट कर नीति के अनुकूल बना लिया। समाज उसे सिर पर लेगा, समाज उसका आदर करेगा, सम्मान करेगा, प्रतिष्ठा देगा। क्योंकि वह समाज का अनुचर है, छाया है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति जीवन के परम नियम के साथ अपनी एकता साध लेगा तो समाज के और उसके बीच कई अड़चनें खड़ी हो जाएंगी। जो स्वाभाविक हैं। क्योंकि समाज अभी साधु होने के स्तर पर नहीं है।
यदि आप चरित्रवान हैं समाज को देख कर, तो ध्यान रखना, यह चरित्र बहुत काम न आएगा। एक सामाजिक उपयोगिता है, एक औपचारिकता है, एक व्यवहार-कुशलता है। उस चरित्र की खोज करें, जिससे आप प्रकृति के साथ एक हों। ये दो बातें ध्यान में रखें। समाज के साथ एक होने की जो चेष्टा है उससे एक चरित्र मिलेगा, लेकिन वह चरित्र ढकोसला होगा, पाखंड होगा। और उसे बचाए रखने की निरंतर चेष्टा करनी पड़ेगी। क्योंकि वह आपके जीवन में सीधा नहीं आया है, ऊपर से लादा गया है। वह एक बोझ है जिसे ढोना पड़ रहा है, जिसे आप किसी भी क्षण उतार कर हलके होना चाहेंगे।
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