________________
सहजता और सभ्यता में तालमेल
127
इसे समझ लें। हम जहां-जहां बहुत चेष्टापूर्वक आदर को निर्मित करते हैं, उसका अर्थ ही यह है कि अगर सब छोड़ दिया जाए बिना चेष्टा के तो अनादर पैदा होगा। समाज जो व्यवस्था करता है, वह अकारण नहीं करता । समाज समझाता है कि भाई और बहन में किसी तरह की भी कामवासना बड़े से बड़ा पाप है। वह इसीलिए समझाता है कि अगर यह न समझाया जाए तो पहले कामवासना का संबंध भाई और बहन में निर्मित हो जाएगा। उसकी प्राकृतिक संभावना है। क्योंकि पहला स्त्री-पुरुष का परिचय भाई-बहन में होगा। और अगर समाज इसको बहुत जोर से संस्कारित न करे कि यह महा पाप है, इससे बड़ा पाप कुछ भी नहीं, तो यह घटना घटेगी। बाप और बेटे के बीच हम आदर का भाव पैदा करवाते हैं। वह आदर का भाव हम इसीलिए पैदा करवाते हैं कि इस बात की पूरी संभावना है कि अनादर पैदा हो जाए और बाप और बेटे के बीच घना संघर्ष हो जाए।
तो अगर आपको अपने पिता से दबा हुआ मन में घृणा का भाव है तो जहां-जहां फादर फिगर, जहां-जहां पिता की प्रतिमा दिखाई पड़ेगी, वहां आपको घृणा होगी। जो बेटा बाप से घृणा करता है वह गुरु से प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि गुरु पिता जैसा मालूम पड़ेगा। जो बेटा बाप से घृणा करता है वह परमात्मा से भी प्रेम नहीं कर सकता, क्योंकि परमात्मा परम पिता की अवस्था है। तो जहां-जहां उसे दिखाई पड़ेगा कि पिता की झलक मिलती है, वहां घृणा खड़ी हो जाएगी।
अगर कोई बेटा अपनी मां को घृणा करता है, जो कि कम घटता है; बेटियां मां को घृणा करती हैं, बेटे नहीं । बेटियां पिता को घृणा नहीं करतीं, और यह उचित है, क्योंकि यही प्राकृतिक है। लेकिन अगर कोई बेटा अपनी मां को घृणा करता है किन्हीं भी परिस्थितिवश कारणों से, तो फिर वह किसी स्त्री को प्रेम नहीं कर पाएगा। जहां भी स्त्री दिखाई पड़ेगी, मां की झलक मौजूद हो जाएगी।
तो अगर कोई व्यक्ति किसी भी स्त्री को प्रेम नहीं कर पाता तो उसका अर्थ है कि वह अपनी मां को प्रेम नहीं कर पाया। तो जहां स्त्री दिखाई पड़ी वहां मां तो खड़ी हो गई। जो बेटा अपनी मां के विरोध में है, कारण कोई भी हों, वह स्त्री मात्र के विरोध में हो जाएगा। क्योंकि पहला परिचय स्त्री का तो मां से ही है; पहली छाप तो मां की ही पड़ेगी। तो स्त्री के संबंध में जो भी धारणाएं बनने वाली हैं, उसमें मां का जो प्रतिबिंब बना है, वही हाथ बंटाएगा।
तो आपके मन में कई तरह के प्रतिबिंब संगृहीत हैं। एक व्यक्ति अनजान मालूम पड़ता है, लेकिन उसका कोई गुण जाना-माना होगा; उस गुण के कारण तत्क्षण निर्णय हो जाता है। वह निर्णय घृणा पैदा कर देता है। लेकिन घृणा बिना प्रेम के पैदा नहीं होती। उस गुण से आपके परिचय, मैत्री, प्रेम के संबंध रहे हैं, और आप उस संबंध में विफल हो गए हैं। वह विफलता घनी हो गई है। उस बिफलता के कारण कहीं भी वह गुण दिखाई पड़ा कि आप फौरन चौंक जाएंगे। हम कहते हैं न कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। क्योंकि दूध की एक झलक छाछ में भी मिलती है— कम से कम रंग। तो जो दूध से जल गया है वह छाछ भी फूंक कर ही पीएगा। वह जो जलन का अनुभव है, वह छाछ के प्रति भी भय पैदा करवा देगा।
और एक कारण है जो इससे ज्यादा गहरा है; वह भी खयाल में ले लेना चाहिए। आप उन्हीं चीजों को घृणा करते हैं अक्सर, उन्हीं गुणों को घृणा करते हैं अक्सर, दूसरों में देख कर जिन गुणों को आप अपने में घृणा करते हैं। यह थोड़ा गहरा है; पहले से भी ज्यादा इसकी गहरी पर्त है। जब अचानक एक आदमी को देख कर आपके मन में घृणा पैदा होती है तो आप खोज - बीन करना कि कहीं यह आत्म-निंदा का हिस्सा तो नहीं है। क्योंकि जो चीज आप अपने में बुरी पाते हैं वही आप दूसरे में भी बुरी पाते हैं। यह प्रोजेक्शन है। जो चीज आप अपने में चाहते हैं न हो वह जब आपको दूसरे में दिखाई पड़ती है तो घृणा पैदा होती है। इसलिए सब घृणा का विस्तार कहीं गहरे में आत्म-घृणा का हिस्सा है। इसे समझें ।