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________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 126 ये जो वृक्ष हैं ताओ के और बुद्ध धर्म के, ये तो बहुत प्राचीन हैं। और इनके लिए बहुत प्राचीन भूमि चाहिए। तो प्राचीन भूमियों में भारत ही सर्वाधिक पुराना है। और उसके पास बहुत पुराने संस्कारों की संपदा है। उस संपदा में ये वृक्ष पल सकते हैं। इनको नई जगह नहीं पाला जा सकता। इसे ऐसा ही समझें कि एक छोटे बच्चे को अगर पश्चिम में रखा जाए तो वह बहुत शीघ्र पश्चिम के अनुकूल ढल जाएगा। और एक बूढ़े आदमी को पश्चिम में ले जाया जाए, वह नहीं ढल पाएगा। उसके ढलने का कोई उपाय नहीं है। नई भूमि उसके लिए खतरनाक सिद्ध होगी। बच्चे के लिए नई भूमि सार्थक हो सकती है; बूढ़े के लिए पुराना वातावरण चाहिए। यह ताओ बूढ़े से बूढ़ा धर्म है। इसलिए मैंने कहा कि भारत में। हां, फिर इस वृक्ष पर जो नए बीज लगें, उनको पश्चिम में पहुंचाया जा सकता है। दलाई लामा जो साधना की प्रक्रिया लेकर आए हैं उसको तो पश्चिम समझ भी नहीं सकता। क्योंकि वह तो इतनी जटिल है; उसका तो हजारों साल का लंबा इतिहास है। पश्चिम को अगर समझाना हो तो अब स से शुरू करना पड़ेगा; पहली कक्षा से शुरू करना पड़ेगा। वे जो लाए हैं, वह परम शिखर है । उस शिखर को समझने के लिए भारत के अतिरिक्त कोई भूमि समर्थ नहीं है। क्योंकि ऐसा कोई ऊंचा शिखर नहीं है जो भारत ने न छू लिया हो, जिससे वह परिचित न हो। भला भारत के बड़े समूह की स्थिति विकृत हो गई हो, लेकिन भारत में ऐसे कुछ लोग निरंतर ही खोजे जा सकते हैं जो कितनी ही ऊंची बात हो उसको समझने में समर्थ हैं। और भारत में ऐसा हृदय खोजा जा सकता है जिसके लिए अ ब स से शुरू करने की जरूरत नहीं; अंतिम पाठ जिसे दिया जा सकता है। और ताओ या दलाई लामा जो लेकर आए हैं वह अंतिम पाठ है। अगर यह पहली कक्षा के विद्यार्थियों को दिया जाए तो खो जाएगा। इसलिए मैंने ऐसा कहा कि उन दोनों के लिए भारत में ही पुनर्प्रारोपण हो सकता है। यह नए बीज का बोना नहीं है; बूढ़े वृक्ष का पुनर्प्रारोपण है। दूसरा प्रश्न : एक मित्र ने पूछा हैं कि आपने कहा कि घृणा के लिए प्रेम आवश्यक हैं। लेकिन कई बार किसी आदमी का परिचय हुए बिना उसे देख कर ही हमें घृणा हो जाती हैं, उससे मिलने का, उससे बातचीत करने का जी भी नहीं चाहता। तो क्या ऐसे वक्त में प्रेम के बिना घृणा संभव नहीं हैं? ऐसा जब भी हो कि किसी को देख कर ही, जिससे कोई मैत्री नहीं, कोई संबंध नहीं, जिससे कोई परिचय नहीं, और घृणा पैदा हो जाए, तो इसका एक ही अर्थ होता है कि उस व्यक्ति में कुछ ऐसा है जिससे आपका परिचय है और जिससे आपको घृणा है। क्योंकि बिना परिचय के तो घृणा हो ही नहीं सकती। उस व्यक्ति में कुछ ऐसा है— उसके उठने में, उसके चलने में, उसकी आंखों में, उसके चेहरे में, उसके आस-पास की हवा में—उसके व्यक्तित्व की छाप में कुछ ऐसा है जिससे आप परिचित हैं, और जिससे आप प्रेम कर चुके हैं, और जिससे आप घृणा कर रहे हैं। चाहे खोजने में कठिनाई हो; क्योंकि व्यक्ति बड़ा समूह है, उसमें बहुत सी बातें हैं । अगर आप अपने पिता से घृणा करते रहे हैं; अक्सर बेटे पिता से घृणा करते हैं, क्योंकि एक कलह है, एक संघर्ष है जो पिता और बेटे के बीच चलता है। क्योंकि पिता बेटे के हित में ही उसको बदलने की कोशिश करता है, और बेटे के अहंकार को चोट लगनी शुरू हो जाती है। वे सब चोटें इकट्ठी हो जाती हैं। इसलिए सारी दुनिया के समाज और संस्कृतियां, बेटा पिता को परम आदर दे, इसकी चेष्टा करते हैं। इस चेष्टा के पीछे यही राज है कि अगर इसका आयोजन न किया जाए तो बेटा पिता का अनादर ही करेगा, आदर नहीं कर सकता। तो इसका आयोजन करना पड़ता है समाज को, संस्कृति को ।
SR No.002374
Book TitleTao Upnishad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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