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शुद्र आचरण नीति है, परम आचरण धर्म
यह जो दोहरी स्थिति है, आचरण-अनाचरण दोनों को एक साथ सीख लेने की, इससे प्रत्येक व्यक्ति विभाजित हो जाता है, स्प्लिट हो जाता है, टुकड़ों में बंट जाता है। उसे दोहरे तलों पर जीना पड़ता है एक साथ। दो नावों में सवार होना पड़ता है एक साथ। दो दरवाजों से निकलना पड़ता है एक साथ। पूरी जिंदगी जो तनाव से भर जाती है, उसका कुल कारण यही है कि हम एक साथ दो नावों पर सवार हैं; तनाव तो होगा ही। और नावें भी ऐसी कि एक पूरब जाती है, एक पश्चिम जाती है।
तब तो बर्नार्ड शॉ ठीक कहता है कि मैं अपने बच्चों को तभी कहूंगा कि ईमानदारी उपयोगी है, जब सारी दुनिया ईमानदार हो जाए; उसके पहले नहीं। मेरे खयाल से वह ईमानदार है। बच्चे को यही सिखाना उचित है कि डिसआनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी। एक ईमानदार बाप यही सिखाएगा। लेकिन बेईमान बाप सिखाएगा कि आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी। और अपने आचरण से यह भी सिखाएगा कि तू भी अपने बच्चों को यह वचन सिखा देना, लेकिन व्यवहार कभी मत सिखाना।
मुल्ला नसरुद्दीन मर रहा है तो उसने अपने बेटे को कहा कि तुझे आखिरी शिक्षा दे देता हूं। व्यवसाय अब तू सम्हालेगा मेरा, दो सूत्र याद रखना। एक, कि वचन का सदा पालन करना। उसके बेटे ने पूछा, और दूसरा? नसरुद्दीन ने कहा, वचन किसी को कभी देना नहीं। इन दो सूत्रों का अगर तूने खयाल रखा तो सफलता तेरी है।
ये दो सूत्र हमारे समस्त आचरण सूत्रों के साथ जुड़े हुए हैं। करना कुछ, कहना कुछ; होना कुछ, दिखलाना कुछ। जो वास्तविक हो, उसे प्रकट मत होने देना, उसे छिपाए रखना अंधेरे में और जो वास्तविक न हो, उसे प्रकट करना। इसलिए जब दो आदमी मिलते हैं तो दो आदमी नहीं मिलते, कम से कम छह आदमी मिलते हैं। क्योंकि हर आदमी कम से कम, मिनिमम, तीन चेहरे तो रखता ही है। एक जैसा वह है, जिसका उसे भी अब पता नहीं; क्योंकि इतना लंबा समय हो गया उसका उपयोग किए कि उससे पहचान टूट गई है। एक वह, जैसा वह समझता है कि मैं हं; जैसा कि वह नहीं है। और तीसरा वह चेहरा, जैसा वह दिखाना चाहता है हमेशा कि मैं हूं। जब दो आदमी मिलते हैं एक कमरे में तो छह आदमी मिलते हैं। अक्सर चर्चा चेहरों के बीच चलती है, आदमी तो चुप ही खड़े रहते हैं। असली आदमियों का मिलना ही नहीं हो पाता।
यह जो नैतिक व्यवस्था हम सीखते हैं खंडित व्यक्तित्व की, यह समाज से मिलती है, दूसरों से मिलती है। उधार है। लाओत्से कहता है, जो परम आचरण के सूत्र हैं, वे केवल ताओ से निष्पन्न होते हैं। ताओ का अर्थ है लाओत्से का स्वभाव से, समाज से नहीं; बाहर से नहीं, भीतर से; दूसरों से नहीं, स्वयं से। - बुद्ध भी सच बोलते हैं। महावीर भी संच बोलते हैं। हम भी सच बोलते हैं। लेकिन हमारे सच और बुद्ध के सच में भेद है। हमारा सच सीखा हुआ सच है। बुद्ध का सच सीखा हुआ सच नहीं है। हम जब सच बोलते हैं तो हमारे भीतर झूठ मौजूद होता है। इसको ठीक से समझ लें। जब हम सच बोलते हैं, हमारे भीतर झूठ मौजूद होता है। हम तौल लेते हैं कि क्या बोलें? कौन सा फायदे का होगा? कौन सा हितकर होगा? अभी क्या उचित है? हम सदा चुन कर बोलते हैं। विकल्प हमारे सामने होता है। बुद्ध जब सच बोलते हैं, तो विकल्प सामने नहीं होता। चुन कर भी नहीं बोलते। झूठ मौजूद नहीं होता। जो भीतर होता है, वह बाहर निकल आता है। इसलिए हमारा सत्य भी झूठ से मिश्रित होता है। होगा ही। और हम सत्य भी इस ढंग से बोलते हैं कि उससे हम झूठ का ही काम ले लें। और हम सच इस ढंग से भी बोलते हैं कि हम उससे भी हिंसा का काम ले लें। हम सच इस ढंग से बोलते हैं कि हम उससे भी किसी की छाती में छुरा भोंक दें। कई बार तो ऐसा लगता है कि हमारे सच बोलने से बेहतर होता कि हम झूठ ही बोलते। क्योंकि हमारे झूठ में कभी-कभी मलहम भी होती है। हमारे सच में छुरा ही होता है। नजर हमारी सच बोलने की कम होती है, चोट करने की ज्यादा होती है। चूंकि सच खूब चोट करता है, इसलिए हम सच बोलते हैं।