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ताओ उपनिषद भाग ३
फर्क नहीं होता। तब नैतिक और अनैतिक आदमी में जो अंतर होते हैं, वे डिग्रीज के, मात्राओं के होते हैं, गुण के नहीं होते। तब आप किसी भी अनैतिक आदमी को नैतिक बना सकते हैं और किसी भी नैतिक आदमी को अनैतिक बना सकते हैं। इन दोनों के बीच में कोई गुणात्मक, क्वालिटेटिव भेद नहीं है। इन दोनों के बीच मात्रा के भेद हैं। अगर आप मात्रा की व्यवस्था बदल दें तो उनकी नीति अनीति हो जाएगी, अनीति नीति हो जाएगी।
लाओत्से का यह सूत्र शुरू होता है, 'दि मार्क्स ऑफ ग्रेट कैरेक्टर फालो एलोन फ्रॉम दि ताओ-परम आचार के जो सूत्र हैं, वे केवल ताओ से ही उदभूत होते हैं।'
___ क्षुद्र आचार का अर्थ है : आचरण अपने आप में मूल्यवान नहीं है, उससे कुछ मिलता है, वह मूल्यवान है। परम आचरण का अर्थ है : आचरण अपने में ही मूल्यवान है। आचरण स्वयं ही लक्ष्य है, एंड इन इटसेल्फं, वह किसी चीज का साधन नहीं है। आपसे अगर हम पूछे कि आप सत्य क्यों बोलते हैं? अगर आप कहें कि सत्य बोलने से पुण्य होता है, अगर आप कहें कि पुण्य से स्वर्ग मिलता है, अगर आप कहें कि सत्य बोलने से प्रतिष्ठा मिलती है, यश मिलता है-अगर सत्य बोलने का आप कोई भी कारण बताएं-तो आपका सत्य क्षुद्र आचरण होगा। अगर आप कहें कि सत्य बोलना अपने आप में ही पर्याप्त है, किसी और कारण से नहीं, कोई और कारण नहीं है जिससे हम सत्य बोलते हैं, सत्य बोलना अपने में ही आनंद है तो फिर अगर सत्य बोलने के कारण नरक भी जाना पड़े तो भी हम सत्य बोलेंगे। और फिर सत्य बोलना चाहे पाप भी हो जाए तो भी हम सत्य बोलेंगे। और चाहे सत्य बोलने के कारण सूली मिले तो भी हम सत्य बोलेंगे।
लेकिन तब हमारे क्षुद्र आचरण की बड़ी कठिनाई हो जाएगी। हम सत्य बोलते हैं स्वर्ग जाने के लिए। और इसीलिए चूंकि स्वर्ग संदिग्ध हो गया, सत्य बोलने वाले जगत में कम हो गए। स्वर्ग अब संदिग्ध है। आज से हजार साल पहले संदिग्ध नहीं था। आज जो दुनिया में इतनी अनीति दिखाई पड़ती है और आज से हजार या दो हजार साल पहले जो नीति दिखाई पड़ती थी, उसका यह कारण नहीं है कि लोग ज्यादा अनैतिक हो गए हैं, उसका यह भी कारण नहीं है कि पहले के लोग ज्यादा नैतिक थे, उसका कुल कारण इतना है कि पहले की नीति जिन आधारों पर । खड़ी थी, वे संदिग्ध हो गए हैं। जो लाभ हो सकता था दो हजार साल पहले, निश्चित मालूम पड़ता था, आज वह निश्चित नहीं रहा है। और जब लाभ के लिए ही कोई नैतिक होता है और लाभ ही अनिश्चित हो जाए, तो फिर नैतिक होना पागलपन होगा।
दो हजार साल पहले स्वर्ग इतना ही निश्चित था, जितनी यह पृथ्वी है। शायद इससे भी ज्यादा निश्चित था। पृथ्वी तो थी माया, असत्य, स्वप्न; स्वर्ग था सत्य, नरक था सत्य। पृथ्वी के जीवन से भी ज्यादा वास्तविकताएं थीं उनमें। झूठ बोलने का अर्थ नरक था। उसके दुष्परिणाम थे, भयंकर दुष्परिणाम थे। सत्य बोलने का अर्थ स्वर्ग था। उसके बड़े पुरस्कार थे, बड़े लाभ थे। अप्सराएं थीं, स्वर्ग के सुख थे, कल्पवृक्ष थे। वह सब सुनिश्चित था। उस समय जो होशियार आदमी था, कनिंग जिसको ताओ कहेगा, चालाक, वह सत्य बोलता, झूठ नहीं बोलता। क्योंकि जब सत्य से स्वर्ग मिलता हो और झूठ से नरक मिलता हो और नरक और स्वर्ग वास्तविकताएं हों, तो जो चालाक है, वह सत्य ही बोलेगा। यह बड़ी कठिन बात मालूम पड़ेगी। आज से दो हजार साल पहले जो आदमी चालाक था, वह सत्य बोलता था, ईमानदार था। आज जो आदमी चालाक है, वह बेईमान है और झूठ बोलता है। पर वे दोनों ही चालाक हैं। आज वह आदमी झूठ बोल रहा है। क्योंकि वह पाता है कि स्वर्ग और नरक तो हो गए माया, इल्यूजरी; वह जो हाथ में रुपया है नगद, वह ज्यादा वास्तविक है। यह वही आदमी है। इसके हाथ में स्वर्ग के सिक्के वास्तविक थे, अब वे वास्तविक नहीं हैं। उनके लिए इसने नैतिकता को वरण किया था। वे ही खो गए तो नैतिकता भी खो गई। कल का जो नैतिक आदमी था, वही आज अनैतिक है।
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