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ताओ उपनिषद बाग ३
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है? जान में जान आ जाती है। खून तेजी से चलने लगता है। सुबह से आदमी अखबार लेकर बैठ जाता है। लोगों के चेहरों पर रौनक देखें। जब युद्ध चलता है, तब लोगों के चेहरों पर रौनक देखें। जब युद्ध चला जाता है, लोग फिर मंदे हो जाते हैं। फिर धीमे हो जाते हैं। फिर राह देखते हैं कि कुछ हो जाए। कहीं कुछ नहीं हो रहा है, अखबार में कोई खबर नहीं है।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन अपने जीवन के अंत में गांव का काजी, गांव का न्यायाधीश बना दिया गया था। पहले ही दिन जब वह बैठा अदालत में, सुबह से दोपहर होने लगी, कोई मुकदमा न आया। फिर सांझ भी होने लगी, कोई मुकदमा न आया। क्लर्क उदास, बेचैन। पहरेदार बेचैन। सिपाही बाहर-भीतर आते हैं, कोई नहीं आया। वकील बेचैन। आखिर क्लर्क ने कहा कि क्या हो गया, आज ही आप बने हैं न्यायाधीश और कोई आया नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा, घबड़ाओ मत, आई हैव स्टिल फेथ इन ह्यूमन नेचर। आदमी की प्रकृति पर मुझे अब भी भरोसा है; कोई न कोई आएगा। कोई न कोई आएगा; घबड़ाओ मत। कोई न कोई अपराध होकर रहेगा। आदमी पर मुझे अब भी भरोसा है।
और जब सांझ होते-होते एक मुकदमा आ गया मार-पीट का, सारी अदालत में रौनक आ गई। लोग अपनी-अपनी जगह बैठ गए। लोगों ने अपने रजिस्टर खोल लिए। वकील खड़े हो गए, सिपाही में जान आ गई। मजिस्ट्रेट में जान आ गई।
अदालत मर जाती है, जिस दिन मुकदमा नहीं आता। डाक्टर की नब्ज ढीली पड़ जाती है, जिस दिन कोई बीमार नहीं होता-स्वभावतः! हमारे जीवन का जो ढंग है, वह ज्वरग्रस्त है। युद्ध होता है तो सबकी रीढ़ तन जाती है।
हिटलर ने अपनी आत्मकथा में, मेन केम्फ में लिखा है कि किसी भी राष्ट्र को बड़ा होना हो तो युद्ध के बिना कभी कोई बड़ा नहीं होता। और जो राष्ट्र बिना युद्ध के बहुत दिन जी जाते हैं, उनकी रीढ़ ट जाती है।
हो सकता है, यही कारण भारत की रीढ़ के टूट जाने का हो। क्योंकि महाभारत के बाद युद्ध वगैरह से हमने कोई संबंध नहीं रखा। हिटलर ने लिखा है कि अगर कोई युद्ध न भी हो रहा हो तो भी मुल्क में जान बनाए रखने के लिए युद्ध की अफवाह बनाए रखनी चाहिए कि अब युद्ध हो रहा है, अब युद्ध हो रहा है। सस्पेंशन! तो लोगों का खून तेजी से दौड़ता है, आत्मा जोर से धड़कती है, लोग प्राणवान रहते हैं।
निश्चित ही, ऐसे प्राणवान लोगों के बीच अगर लाओत्से को लगता होय एक मैं ही हठीला और अभद्र! जहां सभी बीमारी से भरे हैं और ज्वर में भागे जा रहे हैं और सन्निपात में बक रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, वहां मेरी आवाज बड़ी धीमी मालूम पड़ती है। निश्चित ही उन सबको लगता है कि तुम हठीले हो; आओ हमारे साथ! दौड़ो हमारे साथ! अभद्र हो तुम, जो सभी कर रहे हैं, वह तुम नहीं कर रहे हो।
सभ्य का मतलब ही क्या होता है? असभ्य का मतलब ही क्या होता है?
सभ्य शब्द का तो यही मतलब होता है। सभ्य शब्द बनता है सभा से। जो सभा के साथ हो, वह सभ्य। जो सबके साथ हो, वह सभ्य। जो सबके साथ न हो, वह असभ्य। सभ्य का मतलब होता है, सभा में बैठने की योग्यता जिसमें हो। भीड़ के साथ खड़े होने की जिसमें योग्यता हो, वह सभ्य। भद्र कौन है? जो हमारे मापदंड के अनुकूल है। अभद्र वही है, जो हमारे मापदंड के अनुकूल नहीं है।
तो लाओत्से कहता है, एक मैं ही दिखता हूं हठीला और अभद्र। लोगों की मानता नहीं। लोग नाराज हैं। भीड़ के साथ चलता नहीं। भीड़ समझती है, मैं विक्षिप्त हूँ।
'और अकेला मैं ही हूं भित्र अन्यों से; क्योंकि देता हूँ मूल्य उस पोषण को, जो मिलता है सीधा ही माता प्रकृति से।