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संत की वक्रोक्तियां: संत की विलक्षणताएं
ये चारों तरफ जो लोग हैं, इनका सारा पोषण, इनके जीवन की सारी ऊर्जा और गर्मी, इनका प्राण सहज स्वभाव और प्रकृति से उपलब्ध नहीं होता। इनका प्राण भविष्य की किन्हीं आशाओं, आकांक्षाओं से उपलब्ध होता है। किन्हीं सिद्धांतों, शब्दों, लक्ष्यों से उपलब्ध होता है। सहज प्रकृति और स्वभाव से नहीं। मैं तो उतना ही जीता हूं, जितना सहज; जितना प्रकृति जिलाती है, उतना जीता हूं। जितना प्रकृति दौड़ाती है, उतनी ही मेरी गति है। प्रकृति रोकती है तो मैं रुक जाता हूं। प्रकृति चलाती है तो मैं चलता हूँ। अपनी मेरी कोई दौड़ नहीं है। अपनी मेरी कोई गति नहीं है। मस्तिष्क और बुद्धि से मेरा कोई परिचालन नहीं है।
इस अंतिम वाक्य को हम ठीक से समझ लें। एक तो ढंग है सहज जीवन का। लाओत्से ने कहा है, मैं एक सूखे पत्ते की भांति हूं। हवा पूरब ले जाती है तो पूरब चला जाता है। हवा पश्चिम ले जाती है तो पश्चिम चला जाता हूं। हवा जमीन पर गिरा देती है तो मैं विश्राम कर लेता हूं; हवा आकाश में उठा देती है तो मैं बादलों के साथ होड़ कर लेता हूं। लेकिन मेरी अपनी कोई दिशा नहीं है। कहीं जाने की मेरी कोई योजना नहीं है। क्योंकि योजना जैसे ही बनी, वैसे ही संघर्ष शुरू हो जाता है। मैं पूरब जाना चाहता हूं और हवाएं पश्चिम जा रही हैं। और हवाएं मेरी मानने वाली नहीं हैं। मैं कौन हूं? और हवाओं को मुझ से क्या प्रयोजन है?
लाओत्से कहता है, हवाएं जिस तरफ बहती हैं, वही मेरी दिशा है। और अगर हवाएं बीच में अपनी दिशा बदल लेती हैं तो मेरी दिशा भी बदल जाती है। कहता यह है कि मेरी अपनी कोई दिशा नहीं है, जो मैंने बुद्धि से तय की हो। मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। प्रकृति का ही अगर कोई लक्ष्य मुझमें हो तो प्रकृति जाने। अगर प्रकृति ही मेरे द्वारा कुछ करवाना चाहती हो तो करवा ले। अगर प्रकृति को मुझसे कुछ न करवाना हो, मेरी कोई योग्यता-पात्रता न हो, तो मैं अकारण अपनी पात्रता सिद्ध करने की व्यर्थता में न पडूंगा। लाओत्से के लिए प्रकृति का वही अर्थ है, जो परमात्मा का है। लेकिन लाओत्से परमात्मा शब्द का उपयोग करना पसंद नहीं करता। कारण है। लाओत्से प्रकृति शब्द उपयोग करना पसंद करता है बजाय परमात्मा के। क्योंकि परमात्मा को हमने एक सिद्धांत बना लिया है। और परमात्मा को हमने आगे रख लिया है। और जब भी हम परमात्मा की बात करते हैं तो परमात्मा से हमारा कम प्रयोजन होता है, हमारे परमात्मा से ज्यादा प्रयोजन होता है। परमात्मा पर दावेदारी भी है। और परमात्मा में हमने वे सब चीजें डाल दी हैं, जो हम चाहते हैं कि हों। हमने परमात्मा से नहीं पूछा है कि तेरी क्या मर्जी है। हमने अपनी मर्जी उस पर रख दी है और कहा है कि यह मर्जी अगर हो तो त हमारा परमात्मा है।
बाइबिल कहती है कि ईश्वर ने आदमी को अपनी अनुकृति में बनाया-गॉड क्रिएटेड मैन इन हिज ओन इमेज, ईश्वर ने खुद अपनी ही शक्ल में आदमी को बनाया। लेकिन नीत्शे कहता है, इस वाक्य से ज्यादा गलत दूसरा वाक्य खोजना कठिन है। क्योंकि सच्चाई उलटी है। सचाई यह है कि आदमियों ने ईश्वर को अपनी शक्ल में बनाया है। इसीलिए तो इतने ईश्वर हैं, क्योंकि इतने आदमी हैं। काला आदमी ईश्वर को गोरी शक्ल का नहीं बना सकता। गोरा आदमी ईश्वर को काली शक्ल का नहीं बना सकता। और अफ्रीकी का ईश्वर अफ्रीकी की ही अनुकृति होता है।
और हिंदू का ईश्वर हिंदू की अनुकृति होता है। हमारे ईश्वर हमारे गढ़े हुए होते हैं। ईश्वर ने हमें गढ़ा या नहीं, वह दूसरी बात है। लेकिन हम ईश्वर को रोज गढ़ते हैं।
और इसलिए हर दो-चार सौ साल में ईश्वर की शक्ल बदल जाती है। क्योंकि दो-चार सौ साल में गढ़ने वाले बदल जाते हैं। उनके ढंग बदल जाते हैं, सोचने की व्यवस्था बदल जाती है। तो फिर नए ईश्वर बनाने पड़ते हैं। आदमी के पास ईश्वर निर्मित करने के बड़े कारखाने हैं। वहां वह उन्हें निर्मित करता रहता है। फैशन बदलती है, ईश्वर को बदलना पड़ता है। फैशन के हिसाब से ईश्वर की भी फैशन होती है। और पुराने ईश्वर कभी-कभी आउट ऑफ डेट पड़ जाते हैं, उनको फेंक देना पड़ता है, नए ईश्वर गढ़ लेने पड़ते हैं। हमसे उनका तालमेल रहना चाहिए।