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________________ ताओ उपनिषद भाग ३ है-एक सांस में उसने सब पूछ लिया है, जो मनुष्य की चेतना ने अपने पूरे इतिहास में पूछा है; करोड़ों-करोड़ों वर्षों में मनुष्य की चेतना ने जो सवाल पूछे हैं और जिनके उत्तर नहीं पाए, वह आदमी एक क्षण में पूछ लेता है-महावीर उससे कहते हैं कि तुम्हारे पास इतने बड़े सवाल हैं और इतना कम समय मालूम पड़ता है कि उत्तर देना मुश्किल है। तुम्हारे पास सवाल बड़े हैं और समय कम मालूम पड़ता है; क्योंकि तुम एक सवाल पूछ कर रुकते भी नहीं हो। और एक सवाल ही काफी है कि अनंत जीवन लग जाएं उसकी खोज में। उस आदमी ने कहा कि मैं जरा जल्दी में हूं और फिर ऐसा कोई जरूरी भी नहीं है। आपको कुछ खयाल हो तो कह सकते हैं संक्षिप्त में। और न हो खयाल तो कोई हर्जा नहीं है। मैं यहां से गुजरता था, सोचा आप आए हैं, मिलता चलूं। महावीर ने चलते-चलते उस आदमी से कहा, और जहां तक मैं समझता हूं, आपको इनके उत्तर भी मालूम होंगे। उस आदमी ने कहा, निश्चित ही। किसको मालूम नहीं है कि ईश्वर है? मैं आस्तिक हूं, ईश्वर है। यह जो मूढ़ता है, उस मूढ़ता की तरफ इशारा कर रहा है लाओत्से कि तुम सभी बहुत आश्वस्त हो। पूछो किसी से-ईश्वर है? वह जवाब दे देता है, झिझकता भी नहीं। हां कह देता है, न कह देता है। उसे खयाल नहीं है, वह क्या बोल रहा है, किस संबंध में बोल रहा है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिससे पूछे ईश्वर के बाबत और वह चुप रह जाए। वह कुछ कहेगा। हिंदू होगा तो हिंदू के ईश्वर की बात कहेगा, मुसलमान होगा तो मुसलमान के ईश्वर की बात कहेगा, कम्युनिस्ट होगा तो ईश्वर के न होने की बात कहेगा, लेकिन कहेगा। सभी आश्वस्त हैं, सभी को पता है। इसीलिए तो इतना विवाद है। थोड़ा सोचें। जगत में जो इतना विवाद है, वह हमारी मूढ़ता के आश्वस्त होने के कारण है। सभी इतने आश्वस्त हैं कि वे ठीक हैं, सारी दुनिया गलत है। दूसरे को गलत सिद्ध करने में वे इतने उत्सुक हैं कि वे यह भूल ही जाते हैं कि जिस चीज को वे ठीक कह रहे हैं, उसका उन्हें भी पता है या नहीं। इसकी फुर्सत भी नहीं मिलती। दूसरे को गलत करने में इतना श्रम लगता है कि खुद के सही होने का पता लगाने का भी न तो अवसर है, न सुविधा है। और झंझट का काम भी है वह। दूसरे को गलत करना हमेशा आसान है। लाओत्से कहता है, यहां सभी को सब कुछ पता है, एक मैं ही मंद और भ्रांत मालूम पड़ता हूं। __ जो बिलकुल ही भ्रांत नहीं है, वह हमारे बीच भ्रांत मालूम पड़ता है। जो बिलकुल ही मंद नहीं है, वह हमारी झूठी प्रतिभाओं के बीच बिलकुल ही मंद मालूम पड़ता है। यह करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे कागज के फूलों के बीच असली फूल को कोई रख दे। निश्चित ही, कागज के फूलों के रंग ज्यादा चटकीले हो सकते हैं, ज्यादा तेजोमय हो सकते हैं। मौत का उन्हें डर नहीं है; ज्यादा आश्वस्त हो सकते हैं। असली फूल तो डगमगाता होगा। एक-एक पल मौत करीब आती होगी। और जो रंग है, वह भी प्रतिक्षण तिरोहित हो रहा है, प्राण-ऊर्जा क्षीण हो रही है। असली फूल कागज के फूलों के बीच बहुत दीन और दरिद्र मालूम होगा। और थोड़ी ही देर में उसे पता चल जाएगा कि मैं ही एक कमजोर हूं, बाकी सब शक्तिशाली हैं। और हो सकता है मरते वक्त वह फूल कह कर जाए कि एक मैं ही कमजोर था, एक मैं ही था नकली असली फूलों के बीच। असली बचे, नकली खतम हुआ। और कागज के फूल भी इस पर भरोसा करेंगे; क्योंकि यह प्रत्यक्ष है बात कि जो असली थे वे बच गए और जो नकली था वह समाप्त हो गया। जिंदगी बहुत उलटी है। और भीड़ के कारण बड़े भ्रम पैदा होते हैं। 'जो गंवार हैं, वे चालाक और आश्वस्त हैं; अकेला मैं उदास, अवनमित, समुद्र की तरह धीर, इधर-उधर बहता हुआ-मानो लक्ष्यहीन!' । कभी आपने खयाल किया, नदियों के पास लक्ष्य है, सागर के पास कोई लक्ष्य नहीं है। छोटे से नाले के पास भी लक्ष्य है, कहीं पहुंचना है। सागर के पास कोई लक्ष्य नहीं है। क्षुद्र सा नाला भी परपजफुल है, प्रयोजन है। इतना
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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