________________
संत की वक्रोक्तियां: संत की विलक्षणताएं
31
लाओत्से लेकिन खुद ही कहता है, 'मानो मेरा हृदय किसी मूर्ख के हृदय जैसा हो, ब्यवस्था-शून्य और कोहरे से भरा हुआ! जो गंबार हैं, वे बिज्ञ और तेजोमय दिखते हैं; मैं ही केवल मंद और भ्रांत हूं।'
जो गंवार हैं, वे विज्ञ और तेजोमय दिखते हैं। गंवार होना और तेजोमय होना बहुत आसान है। गंवार होना और बिज्ञ होना बहुत आसान है। विज्ञ होना और विज्ञ होने के खयाल से भरना बहुत मुश्किल है। असल में, मैं बुद्धिमान हूं, यह गंवारी का ही लक्षण है। बुद्धिमान को यह भाव पैदा भी नहीं हो सकता। बुद्धिमान की तो जितनी बुद्धिमत्ता बढ़ती है, उतना उसे लगता है कि कितना कम मैं जानता हूं।
न्यूटन ने कहा है कि जैसे सागर के किनारे कुछ सीप बीन ली हों, कुछ रेल पर मुट्ठी बांध ली हो, ऐसा मेरा ज्ञान है। सागर के किनारे अनंत अनंत बालू कणों के बीच थोड़ी सी रेत पर मुट्ठी बांध ली है; थोड़े जैसे बच्चों ने सीपें, सागर के शंख बीन लिए हों, ऐसे ही कुछ शंख बीन लिए हैं----ऐसा मेरा ज्ञान है जो मैं जानता हूं, वे मेरी मुट्ठी के रेत-कण हैं। और जो मैं नहीं जानता हूं, वे इस सागर के रेत-कण हैं।
लेकिन न्यूटन कह सकता है। न्यूटन गंवार नहीं है। न्यूटन जैसे-जैसे जानने लगा, वैसे-वैसे अज्ञान प्रगाढ़ और स्पष्ट होने लगा। लेकिन किसी गंवार को पूछें, वह इतना भी मानने को राजी न होगा कि मेरी मुट्ठी में जितने कण हैं, उतना भी मेरा अज्ञान है। जितने सागर में कण हैं, वह तो मेरा ज्ञान है ही लेकिन जितने मेरी मुट्ठी में हैं, इतना भी मेरा अज्ञान है, यह भी मानने को राजी न होगा।
इसलिए मूढ़ बड़े सुनिश्चित होते हैं। और इन सुनिश्चित मूढ़ों के कारण जगत में इतना उपद्रव है जिसका हिसाब लगाना कठिन है। क्योंकि वे बिलकुल निश्चित हैं। जगत में दो ही कठिनाइयां हैं मूढ़ों का निश्चित होना, ज्ञानियों का अनिश्चित होना। इसलिए मूढ कार्य करने में बड़े कुशल होते हैं। ज्ञानी निष्क्रिय होते मालूम पड़ते हैं। ज्ञानी इतना अनिश्चित होता है, कोहराउन होता है, रहस्य में डूबा होता है, इतने काव्य से घिरा होता है कि गणित की भाषा में सोच नहीं सकता। मूढ आंख बंद करके वहां प्रवेश कर जाते हैं, जहां देवता भी प्रवेश करने में डरें। मूढ काफी सक्रिय होते हैं। उनकी सक्रियता उपद्रव लाती है।
सोचें थोड़ा | लाओत्से को एक तरफ रखें, एक तरफ हिटलर को रखें हिटलर की सक्रियता का बेचारा लाओत्से क्या मुकाबला करेगा। लेकिन उस दिन होगा सौभाग्य जगत का, जिस दिन हिटलर जैसे मूढ़ निष्क्रिय हो सकें और लाओत्से जैसे बुद्धिमान सक्रिय हो सकें।
लाओत्से कहता है, 'जो गंवार हैं, वे विज्ञ और तेजोमय दिखते हैं।'
उन्हें कुछ पता नहीं है। इसलिए जो भी थोड़ा-बहुत उन्हें पता है, उस पर बे मजबूती से खड़े होते हैं। उनका थोड़ा सा ज्ञान भी उन्हें महासूर्य जैसा मालूम पड़ता है। ज्ञानी को उसका महाज्ञान भी एक मिट्टी के दीए जैसा लगता है— टिमटिमाता ।
'मैं ही केवल मंद और भ्रांत हूं।'
और इन सुनिश्चित लोगों के बीच, मतांध लोगों के बीच, जहां सभी आश्वस्त हैं, निश्चित हैं, पूर्ण हैं, वहां एक मैं ही मंद और भ्रांत मालूम पड़ता हूं।
से
महावीर किसी गांव में आते हैं। उस गांव का जो बड़ा पंडित है, वह महावीर से मिलने जाता है। वह महावीर पूछता है ईश्वर है? वह महावीर से पूछता है आत्मा है ? महावीर को बोलने का अवसर भी नहीं है; वह प्रश्न पूछे चला जाता है। जैसे ईश्वर के संबंध में प्रश्न पूछना कुछ ऐसा हो कि दो और दो कितने होते हैं? कि आत्मा के संबंध में प्रश्न पूछना कुछ ऐसा हो कि जैसे कोई भूगोल का सवाल हो कि टिम्बकटू कहां है? स्वर्ग है, मोक्ष है, वह पूछता चला जाता है। महावीर को तो बोलने का भी मौका उसने नहीं दिया है। जब वह सब सवाल पूछ चुकता