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________________ नाओ उपनिषाद माम३ राष्ट्रपत्तियों से दी गई उपाधियां होतीं। कहीं भी तो नहीं हो। वह हम पहले ही जानते थे, सिर्फ शिष्टतावश हमने नहीं कहा था। और लाओत्से हमसे कहेगा कि संसार के लोग इतने संपन्न हैं, सबके पास इतना है कि वे न केवल अपने लिए काफी उनके पास है, दूसरों को भी बांट देते हैं, तो हम कहेंगे, ठीक ही कहते हो। हम सभी को यह खयाल है, हम सभी बांट रहे हैं। हम सभी को यह खयाल है कि हम सभी न मालूम कितनी संपचाएं बांट रहे हैं-प्रेम की, आनंद की, सुख की, मित्रता की, करुणा की। हम कितनी संपदाएं बांट रहे हैं। हम कहेंगे, ठीक ही कहते हो। लेकिन लाओत्से गहन व्यग्य कर रहा है। वह कह रहा है कि तुम सब बुद्धिमान हो, इसलिए उचित होगा यही कि मैं कहूं कि मैं तुम्हारे बीच एक मूर्ख हूं। तुम सबके जीवन में बड़ी व्यवस्था है; मैं व्यवस्था-शून्य। तुम्हारा इंच-इंच नपा-तुला है, तुम गणित से चलते हो, तुम्हारे जीवन में एक हांचा है, योजना है। मैं एक अनायोजित, अनप्नाड, व्यवस्था-शून्य । तुम्हारे पास तर्क है, तुम्हारे पास सोचने का ढंग है, तम दूर की खोज लाते हो। भविष्य में भी तुम झांक लेते हो। तुम एक्क-एक कदम नाप कर रखते हो। और तुम्हारी कोई मंजिल है, जहां तुम पहुंच रहे हो। एक मैं हूं कोहरे से भरा हुआ। मेरी बुद्धि में कोई योजना नहीं, कोई गणित नहीं, कोई तर्क नहीं। सब धुंधला-धुंधला है। तुम बिलकुल साफ हो। हम सभी को यह खयाल है कि हम बिलकुल साफ हैं। और लाओत्से हमें कोहरे से भरा हुआ लगेगा भी। क्या बातें कर रहा है.-हां और न में कोई अंतर नहीं? कि पाप और पुषय सब समान हैं? कि शुभ और अशुभ में भेद क्या है? कोहरे से भरी बातें हैं, मूढ़ ही ऐसी बातें कर सकते हैं। समझदार ऐसी बातें करेंगे कि हां और न में अंतर क्या है, तो फिर समझदारी और नासमझदारी में भी अंतर क्या रह जाएगा? समझदार साफ-साफ जानते हैं कि हां और न में अंतर है। समझदार तो यहां तक जानते हैं कि एक हां और दूसरे हां में भी अंतर है। एक न और दूसरे न में भी अंतर है। न भी हजार तरह की होती हैं; हां भी हजार तरह की होती हैं। समझदार तो अंतर पर ही जीता है। डौक से हम समझें तो हमारी सारी समझदारी इस पर निर्भर करती है कि हम . कित्तने अंतर, कितने भेद निर्मित कर पाते हैं। जो आदमी जितने भेद देख पाता है, उतना बुद्धिमान है। जो कहता है अभेद, कोई भेद नहीं है, वह तो अराजक्क है, उसके पास बुद्धि नहीं है। उसकी बुद्धि कोहरे की भांति है। लेकिन लाओत्से खुद ही कहता है। और इसलिए हम चुक्क भी सकते हैं कि उसका प्रयोजन क्या है। वह यह कह रहा है, जो इस जगत में समझदार हैं और व्यवस्था से जीते हैं, वे केवल मरते हैं-जी नहीं सकते। क्योंकि जीवन का सारा रहस्य, जीवन का सारा काव्य कोहरे में है। सुबह जब कोहरा छाया होता है और एक वृक्ष और दूसरे वृक्ष में फर्क करना मुश्किल हो जाता है, दो इंच फासले पर कुछ दिखाई नहीं पड़ता, सारी प्रकृति जैसे किसी एक ही सागर में कोहरे के डूब जाती है-लाओत्से कहता है कि ऐसे धुंध में जो जीते हैं। लाओत्से के लिए धुंध और कोहरा रहस्य के प्रतीक हैं। पश्चिम में शब्द है मिस्टिक। मिस्ट्रिक का मतलब यह होता है कि जो कोहरे में जीता है, धुंध में जीता है, रहस्य में जीता है। लेकिन आधुनिक पाश्चात्य जगत में किसी को मिस्टिक कहना गाली चेने के बराबर है। और जब लोग किसी की बात को गलत कहना चाहते हैं, तब वे कहते हैं कि तुम मिस्टीफाई कर रहे हो, तुम चीजों को धुंधला कर रहे हो। लाओत्से को पढ़ कर तो बड़ी कठिनाई होती है। लेगे ने, जिसने लाओत्से का अनुवाद किया है, उसने जगह-जगह अपने अनुवाद में लिखा है कि इस वाक्य का अनुवाद नहीं किया जा सकता, यह मेरी समझ में ही नहीं आता। क्योंकि समझ तो फासलों पर जीती है। यह तो सब फासले गिरा देना है, यह तो सब सीमाएं तोड़ कर गजु-मड्ड कर देना है। यह तो सब जो भेद थे, सीमांत थे, उनको तोड़ देने का जपाय है। तो फिर अराजकत्ता हो जाएगी।
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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