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________________ विजयोत्सव ऐसे मना जैसे कि वह अंत्येष्टि को वाला है। लेकिन वह मौत आते वक्त यह नहीं पूछती कि आपने कितने लोगों को मारा था? उससे कोई अंतर ही नहीं पड़ता। आपका मरणधर्मा-स्वरूप मरणधर्मा ही है। हिंसा पर खड़ा है विजय का सारा आधार। हिंसा कुरूपता है। इसलिए लाओत्से कहता है, 'विजय में भी कोई सौंदर्य नहीं है। और जो इसमें सौंदर्य देखता है, वह वही है, जो रक्तपात में रस लेता है।' लेकिन आदमी है बेईमान। और आदमी की सबसे बड़े बेईमानी है उसकी रेशनलाइजेशन करने की क्षमता; वह हर चीज को बुद्धियुक्त कर लेता है। इसे थोड़ा समझ लें; क्योंकि आदमी की बुनियादी बेईमानी है। और हम सब उसमें कुशल हैं। हम जो करना चाहते हैं, उसके आस-पास हम बुद्धि का जाल खड़ा कर लेते हैं। अब तक ऐसा ही आदमी सोचता रहा है कि वह जो भी करता है, बुद्धियुक्त ढंग से करता है। लेकिन यह झूठ है। वह करता पहले है। करने के कारण बुद्धि में नहीं होते; करने के कारण अचेतन मन में होते हैं। लेकिन आदमी यह भी मानने को तैयार नहीं है कि मैं बिना बुद्धि के कोई काम करता हूं। इसलिए करता है किन्हीं और कारणों से, दिखाता है कोई और कारण। इसे हम जरा समझें। आप घर में बैठे हुए हैं। आपको देख कर ही कोई कह सकता है कि आप किसी न किसी पर टूटने की तैयारी कर रहे हैं। आप हालांकि आरामकुर्सी पर बैठे हैं; लेकिन कुर्सी आराम कर रही है, आप नहीं कर रहे हैं। आपके ढंग से दिखता है कि आप तलाश में हैं, आप शिकार की खोज कर रहे हैं। कोई भी आपका निरीक्षण कर रहा हो तो पहचान सकता है कि आप तैयारी में हैं; हालांकि आपको यह बिलकुल खयाल नहीं है खुद भी। लेकिन आपके भीतर भाप इकट्ठी हो रही है; जल्दी ही आपकी भाप फूटेगी। आपका बच्चा स्कूल से चला आ रहा है दिन भर की मुसीबत झेल कर। क्योंकि शिक्षक से बड़ी मुसीबत और क्या हो सकती है! अपना बस्ता टांगे हुए, जैसे सारा संसार का बोझ उठा रहा है-अकारण, उसकी कुछ समझ में भी नहीं आ रहा कि क्यों। वह चला आ रहा है। आपको दिखाई पड़ता है : कपड़े पर दाग लगे हैं, स्याही डाल ली है; या शर्ट फट गया है, या पैंट पर कीचड़ पड़ी है। आप टूट पड़े। - आप यही कहेंगे कि बच्चे का सुधार करना जरूरी है। यह रेशनलाइजेशन! क्योंकि कल भी बच्चा ऐसे ही आया था। बच्चा ही है। और कल तो और एक दिन छोटा था। परसों भी ऐसे ही आया था-स्याही भी डाल कर लाया था, कपड़े भी फटे थे, रास्ते में कीचड़ से भी खेल लिया था। परसों भी ऐसे ही आया था, लेकिन तब, तब आप भीतर क्रोध से भरे नहीं थे। आज, आज क्रोध तैयार है। कल भी इसी पत्नी ने भोजन बनाया था। और जैसा वह सदा जलाती है, वैसा कल भी जलाया था। आज, आज भोजन बिलकुल जला हुआ है। आज आप थाली फेंक देंगे और आप यह कहेंगे कि यह भोजन मैं कब तक खाऊं? अगर यही भोजन खाना है, तो जीना बेकार है। लेकिन कल भी आपने यही खाया था, परसों भी खाया था। और जिस दिन पहले दिन यह पत्नी आई थी, उस दिन तो आपने कहा था, स्वर्ग है तेरे हाथों में! और जो तू छू देती है, अमृत हो जाता है। और उस दिन भी ऐसा ही जला हुआ था। अब तो अभ्यास भी अच्छा हो गया इसका; तब और भी जला हुआ था। लेकिन आज आप टूट पड़ेंगे। आप हालांकि यही कहेंगे कि कब तक कोई ऐसा भोजन कर सकता है! आखिर भोजन तो आदमी को ठीक मिलना चाहिए। लेकिन आप भीतर देखें, तो यह रेशनलाइजेशन है। आप युक्तिपूर्ण बना रहे हैं एक घटना को, जिसका युक्ति से कोई भी संबंध नहीं है, कोई संबंध नहीं है।। एक स्त्री आपको दिखाई पड़ती है और आप प्रेम में पड़ जाते हैं। फिर पीछे आप कहते हैं कि उसकी नाक ऐसी है कि मुझे बहुत प्यारी है, कि उसकी आंखें ऐसी हैं कि मुझे बहुत प्यारी हैं। लेकिन यह सब रेशनलाइजेशन है। 385
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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