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ताओ उपविषद भाग ३
सारी हिंसा का रस दूसरे को छोटा करके खुद को बड़ा अनुभव करने का रस है। आप बड़े होते नहीं। वह बीरबल ने भी अकबर को धोखा दिया; आप भी धोखे में पड़ मत जाना। वह लकीर उतनी की उतनी ही रही, जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हुई, लेकिन नीचे एक बड़ी लकीर खींच देने से वह छोटी दिखाई पड़ने लगी। छोटी हुई नहीं; एपियरेंस, सिर्फ भास हुआ। वह छोटी हुई नहीं, क्योंकि वह उतनी ही है। और उस लकीर को कोई पता भी नहीं है कि वह छोटी हो गई। कैसे पता होगा? वह तो आप जो बड़ी लकीर नीचे देख रहे हैं...। इसको, जो लोग दृष्टि और प्रकाश के संबंध में खोज करते हैं, वे दृष्टि-भ्रम कहते हैं। बीरबल ने धोखा दिया। यह दृष्टि-भ्रम है। लकीर उतनी की उतनी है; अकबर धोखे में आ गया। वह धोखा क्यों पैदा हुआ? एक बड़ी लकीर दिखाई पड़ने लगी; तुलना पैदा हो गई। वह छोटी लकीर छोटी दिखाई पड़ने लगी-बड़ी की तुलना में। लकीर उतनी ही है।
अकबर धोखे में भला आ गया हो, आप धोखे में मत आ जाना। क्योंकि जब आप दूसरे को छोटा करते हैं, आप बड़े नहीं हो रहे, आप उतने के उतने हैं। और डर तो यह है कि दूसरे को आप छोटा कर सके, इसलिए आप और छोटे हो गए हैं। क्योंकि दूसरे को छोटा करने में बिना छोटा हुए कोई उपाय नहीं है।
इसलिए जिस आदमी के पास जाकर आपको लगे कि वह आपको छोटा कर रहा है, वह आदमी बड़ा आदमी नहीं होता। आइंस्टीन के संबंध में सी.पी.स्नो ने लिखी है कि मैं दुनिया के बहुत बड़े-बड़े लोगों से मिला, लेकिन आइंस्टीन की जो बड़ाई थी, जो बड़प्पन था, वह और ही है। क्योंकि उसके पास जाकर ऐसा लगता था कि हम बड़े हो गए हैं। उसके पास होने में यह बात ही भूल जाती थी कि दूसरी तरफ आइंस्टीन है। वह इसका मौका ही नहीं देता था कि पता भी चले कि दूसरी तरफ आइंस्टीन है।
और आइंस्टीन बुद्धि के हिसाब से तो बेजोड़ था ही। एक बहुत बड़े विचारक ने, जोरेफ ने सुझाव दिया है कि अब हमें दुनिया का जो कैलेंडर है, वह आइंस्टीन के हिसाब से चलाना चाहिए-बिफोर आइंस्टीन, आफ्टर आइंस्टीन। आइंस्टीन के पहले की घटना और आइंस्टीन के बाद की घटना अब आइंस्टीन से ही नापी जानी चाहिए-वह लकीर बन जानी चाहिए बीच की। उसके सुझाव में जान है। आदमी इतनी बुद्धि का कभी हुआ नहीं। .
लेकिन स्नो कहता है कि उसके पास बैठ कर पता ही नहीं चलता था कि आइंस्टीन के पास बैठे हैं। यह तो जब उसके घर से लौटने लगते थे, तब खयाल आता था—किससे मिल कर लौट रहे हैं। और उसने खयाल भी न होने दिया। और उसके पास होकर लगा कि हम बड़े हो गए हैं।
जब आप दूसरे को छोटा करते हैं, तब आप बड़े तो हो ही नहीं सकते, छोटे जरूर हो जाते हैं। लेकिन भ्रम पैदा होता है, दृष्टि-भ्रम पैदा होता है।
तो हिंसा का मजा एक है : दूसरा छोटा किया जा सके, हराया जा सके। आप बड़े होते हैं; लगता है कि होते हैं। अगर दूसरा बाधा डाले तो मिटा दिया जाए। तब आपको लगता है कि आपके पास परम शक्ति है, आप मिटा भी सकते हैं। ध्यान रहे, एक दूसरा भ्रम पैदा होता है। जो लोग भी मिटा सकते हैं, वे सोचते हैं कि शायद वे बना भी सकते हैं; जब मिटा सकते हैं, तो बना भी सकते हैं। वह भी भ्रम है। आपकी मिटाने की ताकत आपके बनाने की ताकत नहीं है। मिटाना आसान है। मिटाने का काम बच्चे भी कर सकते हैं, मूढ़ भी कर सकते हैं, पागल भी करसकते हैं। बनाना बड़ी और बात है।
हिंसक मिटाने में सोचता है कि कुछ बना लिया उसने, कुछ करके दिखा दिया। क्या करके दिखाया? मिटाया है। मिटाना कोई कृत्य नहीं है। बनाना! लेकिन भ्रम पैदा होता है कि जब मैं मिटा सकता हूं, तो मैं बना भी सकता हूं।
मनसविद कहते हैं कि दूसरे को मार डालने में आदमी को एक भरोसा आता है कि मैं मार सकता हूं तो मुझे कोई नहीं मार सकेगा। एक आदमी अगर लाखों लोगों की हत्या कर दे तो उसे ऐसा लगता है कि अब मुझे कौन मारने
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