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विजयोत्सव ऐसे मना जैसे कि वह अंत्येष्टि हो
इसका मतलब यह आप मत समझना कि जो भी नग्न हो जाते हैं, वे संदर हैं। उलटा नहीं कह रहा हूं कि जो भी नग्न हैं, वे सुंदर हैं। लेकिन सौंदर्य नग्न हो सकता है, प्रकट हो सकता है; क्योंकि अब कुछ छिपाने को नहीं है, कुछ भय नहीं है किसी का। कुरूपता भयभीत है, छिपना चाहती है, ढंकना चाहती है, आवृत होना चाहती है।
. अब हम सूत्र में प्रवेश करें। _ 'विजय में भी कोई सौंदर्य नहीं है। और जो इसमें सौंदर्य देखता है, वह वही है, जो रक्तपात में रस लेता है।'
विजय में भी कोई सौंदर्य नहीं है क्योंकि विजय निर्भर ही हिंसा पर होती है, विजय आधृत ही मृत्यु पर है। कौन जीतता है? जो मारने में ज्यादा कुशल है, जो मृत्यु का दूत आपसे ज्यादा है। जीतने में न तो पता चलता कि सत्य जीत रहा है, न पता चलता कि शिव जीत रहा है, न पता चलता कि सुंदर जीत रहा है। एक बात भर पता चलती है कि जो शक्तिशाली है वह जीत रहा है। ब्रूट फोर्स, पाशविक शक्ति जीतती है।
जीसस को सूली पर लटका दिया। जिन्होंने सूली दी, उनके पास सिर्फ पाशविक शक्ति थी; जीसस के पास परमात्मा था। लेकिन वे सूली देने वाले सूली देने में जीत गए। मंसूर को जिन्होंने काटा, उनके पास तलवारें थीं; मंसूर के पास आत्मा थी। लेकिन तलवार से काटने वाले लोग शरीर काटने में जीत गए।
एक बात खयाल में ले लें जितना श्रेष्ठतर हो भीतर का अंश, उतना ही पशुता के सामने-बाहरी अर्थों में-जीत नहीं पाएगा। आपके भीतर आइंस्टीन की बुद्धि हो, तो भी क्या फर्क पड़ता है; एक जोर से मारा हुआ पत्थर आपकी खोपड़ी को तोड़ देगा। और आपके पास कितनी ही बड़ी आत्मा हो, तलवार आपकी गर्दन को काट देगी। बाहरी अर्थों में, पशुता जीत जाएगी।
एक और मजे की बात है कि बाहरी अर्थों में सिर्फ पशुता ही जीतना चाहती है। बाहरी अर्थों में सिर्फ पशता ही जीतना चाहती है; बाहरी अर्थों में, वह जो दिव्यता है, जीतना भी नहीं चाहती। क्योंकि जीतने की आकांक्षा ही पशुता का हिस्सा है; दूसरे को जीतने का भाव ही हिंसा है। क्यों जीतना चाहते हैं दूसरे को? डॉमिनेट करना है? मालकियत दिखानी है? उसको वस्तु बना कर अपने घेरे में, फंदे में, अपने कारागृह में डालना है? दूसरे को हम जीतना क्यों चाहते हैं?
दूसरे को जीतने का अर्थ है उसकी स्वतंत्रता को नष्ट करना; वस्तुतः दूसरे को जीतने का अर्थ है उसको नष्ट करना। अगर वह बाधा डालेगा हमारे जीतने में तो हम नष्ट कर देंगे। या तो राजी हो हार कर जीने को तो हम जीने देंगे, और या फिर मरने को राजी हो। असल में, क्या? दूसरे को जीतने में हम क्या चाहते हैं? दूसरे को जीतने में हम दूसरे को मिटाना चाहते हैं। और क्यों? क्या अस्तित्वगत कारण है इसका?
इसका कारण छोटी सी कहानी से कहूं; वह सबकी सुनी हुई कहानी है।
अकबर ने एक दिन एक लकीर खींच दी है बोर्ड पर, और लोगों से कहा है, अपने दरबारियों से, कि इसे बिना छए छोटा कर दो। बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं दरबारी; वे नहीं कर पाए। और फिर बीरबल ने एक लकीर बड़ी उसके नीचे खींच दी है। बड़ी लकीर खिंचते ही वह लकीर छोटी हो गई; कुछ छुआ भी नहीं उसे।
ठीक यही हम कर रहे हैं हिंसा में-उलटे तरह से। हम भीतर बहुत छोटे हैं। एक रास्ता तो है कि इसे हम बड़ा करें। लेकिन तब इसे छूना पड़ेगा, इस भीतर के अस्तित्व को बदलना पड़ेगा। तब इस भीतर के अस्तित्व में संघर्ष और साधना आएगी। तब यह भीतर का अस्तित्व एक लंबी यात्रा होगी क्रांति की, रूपांतरण की। वह झंझट का काम है। इसे हम छूना भी नहीं चाहते, फिर भी हम बड़े होना चाहते हैं, फिर भी अहंकार चाहता है मैं बड़ा हूं। तो एक सीधा उपाय है, दूसरे को छोटा कर दो। इसको छुओ ही मत, इस भीतर की बात ही छोड़ो, इस आत्मा वगैरह की झंझट में मत पड़ो; दूसरे को छोटा कर दो। दूसरा छोटा होते ही आप बड़े मालूम पड़ते हैं।
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