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ताओ उपनिषद भाग ३
लेकिन यह मान्यता की बात है। मान्यता बदलती चली जाती है। और शरीर का सौंदर्य बिलकुल ही धारणा पर निर्भर है। जो आज सुंदर है, कल असुंदर हो जाएगा। जो कल असुंदर था, वह आज सुंदर हो सकता है।
एक और सौंदर्य है, जो धारणा की बात नहीं है; जो आंतरिक अवस्था की, अस्तित्वगत बात है। बुद्ध किसी भी युग से गुजरें और कैसी ही धारणा के लोग हों, बुद्ध का सौंदर्य छुएगा। वह सौंदर्य शरीर का नहीं है, वह चुंबक भीतर का है। यह चुंबक उस आदमी में ही गहन हो जाता है, जिस आदमी में भीतर की हिंसा क्षीण हो जाती है।
क्यों? वह हमें क्यों आकर्षित करता है?
संदर का मतलब है जो खींचे, आकर्षित करे। इसलिए हमने कृष्ण को नाम ही कृष्ण दे दिया। कृष्ण का मतलब है जो खींचे, आकर्षित करे। आकृष्ट करे वह कृष्ण, खींच ले जो, कशिश हो जिसके भीतर। ।
इसे हम ऐसा समझें कि जब भी कोई आदमी आपके प्रति क्रोध से भरता है, तो उस आदमी का सारा आकर्षण आपके लिए समाप्त हो जाता है, विकर्षण पैदा हो जाता है। अगर कोई आदमी आपके प्रति हिंसा से भरा है, आपको पता भी न हो, तो भी उस आदमी के पास आपको बेचैनी मालूम होगी; वह आदमी से आप रिपेल्ड अनुभव करेंगे, हटते हुए, बच जाएं-दूर हो जाए, यह आदमी हट जाए। कभी ऐसा लगता है कि कोई आदमी, बिलकुल ' अपरिचित, अनजान, आपको पहली दफा दिखता है और आप हट जाना चाहते हैं। क्या बात होगी?
जो भी आपके प्रति हिंसा से भरता है, उससे आपका विकर्षण पैदा होता है। अगर आप भी हिंसा से भरे हैं किसी के प्रति तो विकर्षण पैदा होगा। और अगर आप हिंसा से भरे ही हैं, किसी के प्रति का कोई सवाल नहीं, तो जो भी आपके पास आएगा, वह दूर हटना चाहेगा। कभी आपने अनुभव किया है कि लोग आपके पास आना नहीं चाहते, या आते हैं तो दूर हट जाते हैं, या आप उनको खींचते हैं तो वे भागते हैं। अगर ऐसा अनुभव भी होगा, तो आप समझेंगे वे लोग ही गलत हैं। लेकिन थोड़ा विचार करना, अगर भीतर हिंसा है, तो हिंसा विकर्षक है; वह उलटा मैग्नेटिज्म है उसमें, दूर हटाती है। स्वाभाविक भी है। क्योंकि जहां हिंसा हो, वहां आपके जीवन को खतरा है; इसलिए दूर हट जाना उचित है।
जब हिंसा विसर्जित हो जाती है, तो इससे उलटी घटना घटती है। जिसके भीतर से हिंसा विसर्जित हो जाती है, आप अचानक जैसे उसमें गिर जाना चाहते हैं, उससे एक हो जाना चाहते हैं, उसके पास होना चाहते हैं, उसके निकट होना चाहते हैं। एक अदम्य आकर्षण आपको उसकी तरफ खींचने लगता है।
अगर बुद्ध और महावीर के पास सैकड़ों लोग आकर्षित होकर डूब गए, तो उसका कारण, वह जो कह रहे थे, वह नहीं था। क्योंकि उन्होंने जो कहा है, वह किताबों में रखा है। और आप किताब पढ़ लें, आप कुछ दीवाने हो नहीं जाएंगे। गीता कितनी दफे आपने पढ़ ली! लेकिन जो अर्जुन ने जाना है, वह आप नहीं जान पाएंगे।
क्या, फर्क क्या है? वहां वह आदमी मौजूद था, जिसके होने में आकर्षण था। गीता आपको कनविन्स नहीं कर पाएगी, कितना ही पढ़ें। कृष्ण के होने में कनविक्शन है। वह जो राजी हो जाना है आपका, वह कृष्ण के वचन से नहीं है, वह कृष्ण की वाणी से नहीं है, वह कृष्ण के अस्तित्व से है।
एक सौंदर्य है, एक आकर्षण है, जो भीतर की हिंसा के विसर्जित हो जाने से उपलब्ध होता है। और एक ही सौंदर्य है वस्तुतः, जो उसे पा लेता है, वह सुंदर है। जो उसे नहीं पाता, वह कितने ही आभूषण लगाए और कितनी ही सजावट करे और कितना ही बाहर से सजाए-संवारे, वह सिर्फ अपनी कुरूपता छिपा रहा है; सुंदर नहीं हो पाता। कुरूपता छिपाना एक बात है; सुंदर हो जाना बिलकुल दूसरी बात है।
इसीलिए महावीर जैसा व्यक्ति नग्न भी हो सका; क्योंकि अब छिपाने को कुछ बचा ही नहीं। जिसे छिपाते थे, वह कुरूपता न बची। सौंदर्य नग्न हो सकता है, कुरूपता नग्न नहीं हो सकती। सिर्फ सौंदर्य ही नग्न हो सकता है।
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