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संत की वक्रोक्तियां: संत की विलक्षणताएं
लेकिन हम सभी लोग सलाह दे रहे हैं। और सलाह किसके पास है ? सलाह देने का कौन हकदार है? शायद जो हकदार है, वह चुप रह जाता है और जो हकदार नहीं है, वह सलाह दे देता है। दुनिया में जितनी सलाह दी जाती है, उतनी और कोई चीज नहीं दी जाती। लेकिन किसके पास है? कौन जानता है कि क्या सही है? लेकिन देने से ऐसा भ्रम पैदा होता है कि जो हम दे रहे हैं, वह हमारे पास होगा भी।
हम हैं विपन्न। न हमारे पास प्रेम है, न हमारे पास समझ है। और जिसे हम संपत्ति कहते हैं, वह संपत्ति का धोखा है, संपत्ति नहीं। तो चाहे हम तिमोरिया भर लेते हों और चाहे हम गहनों से अपने घर भर लेते हों, वह संपत्ति नहीं है। धोखा जरूर है। धोखा इसलिए है कि उससे हमें खपाल पैदा होता है कि संपदा हमारे पास है। कितनी सौना है किसके पास, कितने रुपए हैं किसके पास, बैंक में कितना जमा है, उससे हम सोचते हैं हम संपत्ति वाले हो गए हैं।
आदमी ने, अंधे आदमी ने, झूठी संपत्ति पैदा कर रखी है-स्वयं को धोखा देने के लिए। क्योंकि अगर यही संपत्ति होती तो महावीर इसे छोड़ कर भागें नहीं। अगर यही संपत्ति हो तो बद्ध पागल हैं, हम खुद्धिमान हैं। बर्द्ध इसे छोड़ कर न जाएं। अगर यही संपत्ति हो तो लाओत्से को पह व्यग्ध में करना पड़े। हमारे पास संपत्ति जैसी कुछ भी व्यवस्था नहीं है। विपत्ति हमारे पास बहुत है। और जिसे हम संपत्ति कहते हैं, वह भी हमारी विपसि ही बन जाती है।
और कुछ भी नहीं। बड़ी मजा है, जिनके पास संपत्ति नहीं है, वे विपत्ति में हैं और जिनके पास संपत्ति है, वे दुगनी विपत्ति में हैं। संपत्ति को बचाने का भी काम उन्हीं के ऊपर पड़ जाता है। वे पहरेदार बन जाते हैं। वे जिंदगी भर उन चीजों पर पहरा देते हैं, जो उनकी नहीं धी; उन चीजों के खोने पर दुखी होते हैं, जो उनकी नहीं थीं। और एक दिन मेर जाते हैं और वे चीजें किसी और की हो जाती हैं। और कोई उन पर पहरा पैने लगता है।
लाओत्से कहता है, 'दुनियावी लोग काफी संपन्न हैं।'
हर आदमी यहा, मालूम होता है, मालिक है। और हर आवमी, मालूम होता है, किसी बड़े साम्राज्य का मालिक है। और ऐसा ही नहीं कि मालकियत है, मालकियत इतनी बड़ी है कि हर आदमी दूसरे को भी दे रहा है, दान भी कर रहा है, बीट भी रही है।
'एक अकेला मैं मानो इस परिधि के बाहर हूं।' एक अकेला मैं ही विपन्न मालूम पड़ता है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। सभी के पास बहुत कुछ है।
बुद्ध पहली बार जब काशी आए ज्ञान के बाद, तो काशी के पहले ही गांव के बाहर ही साँझ हो गई और वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने को रुक गए। सूरज डूबता था। और तभी काशी के नरेश ने अपने सारथी को कहा कि मैं बहुत उद्विग्न हूँ, मुझे गांव के बाहर ले चलो। स्वर्ण-रथ, डूबते हुए सूर्य की किरणों में चमकता हुआ, बुद्ध के पास अकरें अचानक रुक गया। सम्राट ने अपने सारथी को कहा, रथ को रोक! यह कौन भिखमंगा सम्राट सा, कौन भिखमंगा सम्राट सी इस वक्ष के नीचे बैठा है? रोक।
सपाट बुद्ध के पास आया। और उस सम्राट में कहा, तुम्हारे पास कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन तुम्हारे पास जरूर कुछ होगी; तुम्हारी आंखें कहती हैं। यह डूबता हुआ सूर्ष भी तुम्हारे सामने तेजपूर्ण नहीं मालूम हो रहा है। क्या है तुम्हारे पास? कौन सी संपदा है? कौन सा छिपा हुआ खजाना है? मेरे पास सब है जो गिना जा सके, देखा जा सके, पहचाना जा सके, और मैं आत्महत्या के विचार करता है।
सम्राट है जिसके पास सब है; और भिखारी है जिसके पास कुछ भी नहीं है। और फिर भी सम्राट भिखारी के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा है कि तुम्हारे पास क्या है, उसकी मुझे खबर दी।
बुद्ध ने कहा है कि तुम्हारे पास जो है, कभी मेरे पास भी था। लेकिन तब मैं भी ऐसा ही विपन्न था। और जो आज मेरे पास है, तुम्हारे पास भी छिपा है। लेकिन जब तक तुम्हारी झूठी संपत्ति तुम्हें झूठी न दिखाई पड़े, तब तक
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