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ताओ उपनिषद भाग ३
हैं, ये देखते हैं कि आदमी झूठ बोल रहा है और सफल हो रहा है! सफलता में इनका भी रस है, लेकिन डरपोक हैं, भयभीत हैं, झूठ बोल भी नहीं सकते; और सफलता भी वैसी चाहते हैं, जैसा झूठ बोलने वाला पा रहा है।
लेकिन झूठ बोलने वाला क्यों सफलता पा रहा है? समझ लें यह भी कि जो आदमी सच बोल रहा है, उसकी सचाई में ईमानदारी नहीं है। मान लें कि उसका जो ह्रास हो रहा है, वह उसके ही कारण हो रहा है। यह झूठ बोलने वाला आदमी क्यों सफल हो रहा है?
चीजें जटिल हैं। और कोई चीज एक कारण से नहीं होती, अनेक कारण से होती है। जो आदमी झूठ बोल कर सफल हो रहा है, उसमें और भी कुछ होगा-साहस होगा। साहस गुण है। झूठ दुर्गुण है, लेकिन साहस गुण है।
और साहस इतना बड़ा गुण है कि झूठ भी हो तो भी साहस सफल हो जाता है। और साहसहीनता इतना बड़ा दुर्गुण है कि सच भी हो तो उसको भी डुबा लेता है। अगर हम गौर से आदमी का विश्लेषण करें, तो जो आदमी भी सफल होता दिखाई पड़ रहा हो, कुछ न कुछ पता चलेगा कि गुण है, जो उसे सहारा दे रहा है। और जो आदमी असफल होता दिखाई पड़ रहा है, कितना ही ईमानदार दिखाई पड़े, कुछ न कुछ दुर्गुण मिलेगा, जो उसे डुबा रहा है।
धर्म समस्त सदगुणों का जोड़ है। अधर्म समस्त्र दुर्गुणों का जोड़ है। मात्रा पर निर्भर करता है। लेकिन एक बात तय है कि अधर्म हारता है, टूटता है, बिखरता है; क्योंकि वह प्रकृति के प्रतिकूल है।।
कई बार बुरा आदमी हंसते हुए मिल जाता है और अच्छा आदमी रोता हआ ही मिलता है। ऐसी अच्छाई भी क्या अच्छाई है जिसमें से रोना ही निकलता है! और ऐसी बुराई में भी कुछ खूबी है जिसमें से हंसना तो निकल आता है! जब अच्छा आदमी हंसता हुआ मिले–चाहे हार गया हो, तो हार में भी आनंदित हो-तभी जानना कि कोई धार्मिक आदमी है। धार्मिक आदमी हारना जानता ही नहीं; क्योंकि हार में भी जीत ही उसे दिखाई पड़ती है। धार्मिक आदमी असफलता को पहचानता ही नहीं; क्योंकि सभी असफलताएं उसके द्वार आते-आते सफलताएं दिखाई पड़ने लगती हैं। धार्मिक आदमी असंतोष से परिचित ही नहीं है; क्योंकि उसके पास वह कला है कि जो भी चीज उसे छुएगी, वह संतोष बन जाती है।
और इससे विपरीत अधार्मिक आदमी है। वह कितना ही सफल हो, जिस दिन सफलता उसके घर आती है, असफलता हो जाती है। जिस दिन वह पा लेता है झूठ से, बेईमानी से कुछ, उसी दिन व्यर्थ हो जाता है। वह कितना ही बड़ा महल बना ले, वह उस महल में सो नहीं पाता। वह कितना ही बड़ा महल बना ले, वह महल उसका नहीं होता। जिस महल में सो न पाता हो आदमी, वह उसका अपना है? और कितना ही धन इकट्ठा कर ले, उसके भीतर की निर्धनता में कोई कमी नहीं आती। वह मांगे ही चला जाता है, वह चोरी किए ही चला जाता है, वह दुख उठाए ही चला जाता है।
मेरे हिसाब में धार्मिक आदमी सफल होता है; क्योंकि असफलता उसके पास आते ही सफलता हो जाती है। उसके देखने के ढंग में, उसके जीने के ढंग में, वह कीमिया, वह कला है कि वह जो भी छूता है वह स्वर्ण हो जाता है। अधार्मिक आदमी के जीने के ढंग में ही वह भूल है कि वह सोने को भी इकट्ठा कर लेता है तो मिट्टी हो जाती है। उसकी सब सफलताएं भी, आखिर में उसे मालूम पड़ती हैं, उसे कुछ भी नहीं दे गईं। वह रिक्त ही जीता है और रिक्त ही मरता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि आप जरा और ढंग से सोचें। अगर आप शांत हों, आनंदित हों, और आपको लगता हो कि जीवन एक प्रफुल्लता है, तो समझना कि आप धार्मिक आदमी हैं। अगर इसके विपरीत हों, तो समझना कि धर्म के नाम पर आप अपने को धोखा दे रहे हैं। अगर आप दुखी हों, परेशान हों, पीड़ित हों, उदास हों, जीवन एक संताप हो, तो समझना कि आप अधार्मिक आदमी हैं। भला आप मंदिर नियमित जाते हों, गीता रोज पढ़ते हों, कुरान पर सिर टेकते हों, तो भी आप अधार्मिक आदमी हैं। हम उलटा लें तो आसानी हो जाएगी।
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