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ताओ उपनिषद भाग ३
लेकिन हिंसा पैदा ही क्यों होती है?
मैं अपने को बचाने की कोशिश करता हूं, उसी में हिंसा पैदा होती है। जिस दिन कोई आदमी अपने को बचाने का खयाल ही छोड़ देता है। कौन छोड़ सकता है अपने को बचाने का खयाल? सिर्फ वहीं छोड़ सकता है, जिसे यह पता चल जाए कि मैं बचा ही हुआ हूं; मुझे कोई काट भी डालेगा तो मुझे नहीं काट पाएगा; मुझे कोई मिटा भी देगा तो नहीं मिटा पाएगा; मुझे कोई जला देगा तो अग्नि मुझे नहीं जला पाएगी। शस्त्र मुझे नहीं छेद सकेंगे, कृष्ण कहते हैं, आग मुझे नहीं जला पाएगी। ऐसी जिसकी प्रतीति सघन हो जाए, फिर वह भयरहित हो गया। जो भयरहित हो जाता है, वह हिंसारहित हो जाता है। जो भयभीत है, वह हिंसारहित नहीं हो सकता।
इसीलिए मैंने कहा, व्यक्ति अहिंसक हो सकता है पूर्णरूपेण, समाज और राष्ट्र पूर्णरूपेण अहिंसकं नहीं हो सकते। क्योंकि राष्ट्र का मतलब ही संपत्ति है, राष्ट्र का मतलब ही सुरक्षा का उपाय है, राष्ट्र का मतलब ही सीमा है, पहरा है। व्यक्ति मुक्त हो सकता है, राष्ट्र नहीं हो सकते; तब तक, जब तक कि इतने व्यक्ति मुक्त न हो जाएं कि राष्ट्रों की कोई जरूरत न रह जाए। राज्य तो हिंसक होगा ही। इसलिए जो लोग सोचते हैं हम राज्य को अहिंसक बना लेंगे, वे गलत सोचते हैं। व्यक्ति अहिंसक हो सकता है। राज्य हिंसा को मजबूरी मानने लगे, इतना काफी है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। राज्य हिंसा से प्रेम न करे, मजबूरी मानने लगे, इतना काफी है। लेकिन बड़ा मुश्किल है। अभी हमने बंगला देश में अपनी फौजें भेजी; फिर लौट कर हम पद्म-श्री और पद्म भूषण और महावीर-चक्र बांट रहे हैं। जिन्होंने जितनी ज्यादा हिंसा की है, उनके ऊपर उतने बड़े तगमे लगा रहे हैं। यह सिर्फ मजबूरी नहीं मालूम होती; इसमें रस मालूम होता है।
यह मजबूरी होती तो हम कहते कि चलो, जिन्होंने जितनी ज्यादा हिंसा की है, वे तीर्थयात्रा करके अपने पाप का प्रक्षालन कर आएं। अगर मजबूरी होती तो हम कहते कि अब तुम जाओ, काशीवास करो कुछ दिन, ध्यान करो,
और अपना जो पाप हो गया, उसके लिए परमात्मा से प्रार्थना करो कि मजबूरी में हुआ, हमारा कोई रस न था। तो माणेक शा को हमें छुट्टी दे देनी थी कुछ दिन के लिए, तीर्थ जाने के लिए; केदार, बद्री, कहीं जाकर बैठ जाओ, और जो हो गई है बात, मजबूरी थी, करनी पड़ी है, उसका प्रायश्चित्त कर लो। लेकिन हम चक्र और पदवियां बांट रहे हैं। इसमें रस मालूम पड़ता है। यह हिंसा मजबूरी नहीं मालूम पड़ती, यह आवश्यक बुराई नहीं मालूम पड़ती; इसमें कुछ गौरव मालूम पड़ता है।
राज्य इतना ही कर ले कि हिंसा को मजबूरी मान ले तो बड़ी बात है। व्यक्ति अहिंसक हो सकता है, राज्य हिंसक रहेगा। लेकिन मजबूरी में हिंसक हो जाए, तो लाओत्से कहता है, वह राज्य धार्मिक हो गया।
ध्यान रहे, बड़ी चर्चा चलती है कि राज्य को धार्मिक होने का क्या अर्थ। कोई राज्य मुसलमान है, तो वह सोचता है धार्मिक है; कोई राज्य ईसाई है, तो वह सोचता है ईसाई है। हमारा जैसा मुल्क का राज्य है, जो सोचता है सेक्यूलर है, धर्म-निरपेक्ष है, तो वह सोचता है धर्म से हमारा कोई लेना-देना नहीं। न तो ईसाई, न हिंदू, न मुसलमान राज्य धार्मिक होते हैं। धार्मिक राज्य का एक ही अर्थ है : हिंसा जिस राज्य के लिए मजबूरी है। फिर वह चाहे हिंदू हो, चाहे मुसलमान, चाहे ईसाई, कोई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन जिस राज्य के लिए हिंसा में मजा है और जो प्रतीक्षा कर रहा है हिंसा करने की, मौका मिले तो हिंसा करेगा-आक्रमण के नाम से, सुरक्षा के नाम से। और इतिहास बड़ा अनूठा है। दुनिया में जब भी दो लोग लड़ते हैं, दोनों ही मानते हैं कि वे सुरक्षा कर रहे हैं। आक्रमण मानने को कोई कभी राजी होता नहीं। अब तक मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी ने यह नहीं कहा कि हमने आक्रमण किया है। इसलिए सभी मुल्कों का जो सुरक्षा मंत्रालय है, वह डिफेंस कहलाता है। बड़े मजे की बात है, किसी मुल्क में कोई सेना है ही नहीं। सभी डिफेंस डिपार्टमेंट हैं, वे सब
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