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________________ नवेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का 345 लेकिन दूसरों से कोई तभी मुक्त होता है, जब अपने से मुक्त हो जाए। वह जो अपने से बंधा है, दूसरों से बंधा रहेगा। असल में, दूसरों से हम इसीलिए बंधे हैं कि अपने से बंधे हैं। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, कैसे मुक्ति होगी! पत्नी है, बच्चा है, घर है, दुकान है। वे यह कह रहे हैं कि जब तक इसको छोड़ कर न भाग जाएं-पत्नी को, बच्चों को, दुकान को— तब तक मुक्ति नहीं हो सकती। वे ऐसा बता रहे हैं कि जैसे ये सब उन्हें बांधे हुए हैं। कौन किसको बांधे हुए है? जब कोई मेरे पास ऐसा आता है, तो मैं उससे पूछता हूं, मानो तुम अभी मर गए तो ये लोग तुम्हें रोक पाएंगे? नहीं, फिर नहीं रोक पाएंगे। तो मैंने कहा, जब ये फिर नहीं रोक पाएंगे, जब ये मृत्यु में नहीं रोक पाएंगे, तो मुक्ति में कैसे रोक पा सकते हैं? इनका बल कितना है ? इनका कोई बल नहीं है। तुम्हीं बहाने कर रहे हो, तुम्हीं कह रहे हो कि यह पत्नी की वजह से मैं अटका हुआ हूं। और पत्नी सोच रही है कि पति की वजह से अटकी हुई है। दोनों किसी की वजह से नहीं अटके हुए हैं, अपनी वजह से अटके हुए हैं। यह आदमी पत्नी के बिना नहीं रह सकता, इसलिए अटका हुआ है। लेकिन यह कह रहा है कि पत्नी मुझे अटकाए हुए है। और यह सच है कि यह आदमी अगर भाग कर कहीं और चला जाए तो कहीं और पत्नी खोज लेगा; बच नहीं सकता। और तब यह फिर कहेगा कि फिर जाल खड़ा हो गया। वह जाल कोई खड़ा नहीं कर रहा है, वह जाल इसके भीतर है। वह जाल मैं के साथ होता ही है। तो यह अगर आज दुकान छोड़ दे तो कोई फर्क नहीं पड़ता; कल एक मंदिर का पुजारी हो जाएगा, या एक आश्रम का मालिक हो जाएगा, तब वही जाल शुरू हो जाएगा। एक मित्र को मैं जानता हूं; उनको दो हालत में मैंने देखा । एक बार उनके गांव गया था तो वे अपना मकान बना रहे थे। संयोग की बात थी, उनके घर के सामने से निकल गया तो मैं रुक गया। वे छाता लगाए हुए, धूप थी. तेज, मकान बनवा रहे थे। कहने लगे, बड़ी मुसीबत है; लेकिन क्या करें, बच्चे हैं, उनके लिए करना पड़ रहा है। और बन जाए एक दफा मकान तो मैं इस झंझट से छूट जाऊं । ये बच्चे-पत्नी इसमें रहें, और मेरा मन तो त्याग की तरफ झुकता जा रहा है। सुना मैंने; क्योंकि कुछ कहने की बात भी नहीं थी। दस वर्ष बाद उन्होंने घर छोड़ दिया; वे संन्यासी हो गए। फिर मैं उस गांव से निकला, जहां वे आश्रम बना रहे थे। वही आदमी छाता लिए खड़ा था; आश्रम बन रहा था। वे कहने लगे, क्या करूं - उन्हें खयाल भी नहीं रहा कि दस साल पहले यही बात उन्होंने मुझसे तब भी कही थी - क्या करूं, अब ये शिष्य, और यह सब समूह इकट्ठा हो गया है; इनके पीछे यह उपद्रव करना पड़ रहा है। यह आश्रम बन जाए तो छुटकारा हो जाए। मैंने उनसे कहा कि दस साल पहले घर बना रहे थे, तब सोचते थे यह बन जाए तो छुटकारा हो जाए; अब आश्रम बना रहे, हो सोचते हो यह बन जाए तो छुटकारा हो जाए। आगे क्या बनाने का इरादा है ? बनाओगे तुम जरूर, और यही छाता लिए तुम खड़े रहोगे धूप में। और फर्क क्या पड़ गया कि मकान बन रहा था बच्चों के लिए, और आश्रम बन रहा है शिष्यों के लिए; फर्क क्या पड़ गया ? और मुक्त होना था तो मकान बना कर भी हो सकते थे। और मुक्त नहीं होना है तो आश्रम बना कर भी नहीं हो सकते। आदमी सोचता है दूसरे बांधे हुए हैं, कोई और पकड़े हुए है। नहीं, कोई और पकड़े हुए नहीं है। हम ही अपने को पकड़े हुए हैं। और अपने को बचाने के लिए औरों को पकड़े हुए हैं। क्योंकि उनकी कतार हमारे चारों तरफ हो, तो हम सुरक्षित मालूम होते हैं। लगता है कि कोई भय नहीं है; कोई साथी है, संगी है, मित्र हैं, प्रियजन हैं। लेकिन आदमी बचा अपने को रहा है। 'हिंसा ताओ के विपरीत है।'
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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