________________
ताओ उपनिषद भाग ३
344
है, वह रुग्ण हो जाता है। इसलिए जब कोई प्रकृति के प्रतिकूल चलता है तो अपने हाथ से क्षीण होता है, टूटता है, नष्ट होता है। किसी भी दिशा में प्रकृति के प्रतिकूल होने का कोई उपाय नहीं है। अनुकूल होकर ही स्वास्थ्य और जीवन है, और अनुकूल होकर ही आनंद और शांति है। और जो परम अनुकूल हो जाता है, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। परम अनुकूलता का अर्थ हम समझ लें तो प्रतिकूलता भी खयाल में आ जाए।
परम अनुकूलता का अर्थ है कि जिसको यह खयाल ही नहीं रहता कि मैं हूं । प्रकृति ही है। जब तक मुझे खयाल है कि मैं हूं, तब तक थोड़ा-बहुत विरोध रहेगा। मैं का भाव बिना विरोध के हो नहीं सकता; थोड़ा-बहुत विरोध रहेगा। तब तक मैं कुछ न कुछ करता रहूंगा। लेकिन जब मैं हूं ही नहीं, प्रकृति ही है मेरे भीतर और बाहर, तो सब विरोध शांत हो गया।
बुद्ध के संबंध में कहा जाता है: वे ऐसे आते हैं जैसे हवा आए, वे ऐसे चले जाते हैं जैसे हवा चली जाए; न दिखाई पड़ता उनका आना, न दिखाई पड़ता उनका जाना । इसलिए बुद्ध का एक नाम है तथागत । जो आया और गया, लेकिन जिसके आने-जाने की कोई चोट नहीं पड़ती। तथागत का मतलब होता है : जो ऐसे आए कि पता भी न चले, जो ऐसे चला जाए कि पता भी न चले। बुद्ध के प्यारे से प्यारे नाम में तथागत है। हजारों नाम बुद्ध को दिए गए हैं, लेकिन तथागत की खूबी ही और है। आया, गया, और हमें पता भी न चले।
जब कोई इतना एक हो जाता है प्रकृति के साथ कि जैसे प्रकृति ही उसमें उठती है और प्रकृति ही बैठती है और प्रकृति ही सोती है और प्रकृति ही चलती है, तब परम मुक्ति । इसलिए अहंकार का इतना विरोध है; क्योंकि अहंकार आपकी मुक्ति में बाधा है। जितना आपको लगता है मैं हूं, उतना ही आपका आनंद दूर है। और जितना आपको लगे मैं नहीं हूं, उतना ही आनंद निकट है। जिस दिन लगे मैं हूं ही नहीं... ।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, जो बुझ जाता है, जैसे दीया बुझ जाए, ऐसा जिसका अहंकार बुझ जाता है, जो मिट जाता है, जैसे बूंद सागर में खो जाए, ऐसा जो खो जाता है, वही मुक्त है।
इसलिए बुद्ध से कभी लोग जाकर पूछते हैं कि मेरी मुक्ति कैसे होगी? तो बुद्ध कहते हैं, तुम्हारी मुक्ति का कोई उपाय नहीं है। तुमसे मुक्ति हो सकती है, तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती । कीमती बात है । बुद्ध कहते हैं, तुमसे मुक्ति हो सकती है, तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती। तो यह मत पूछो कि मैं कैसे मुक्त हो जाऊं, यह पूछो कि मैं मुझसे कैसे मुक्त हो जाऊं ।
सारा उपद्रव मेरे मैं का है; क्योंकि मेरा मैं मुझे अलग करता है। अगर मैं अनुकूल हूं तो मेरी कोई हिंसा नहीं रह जाती। फिर जो भी होता है, मैं राजी हूं।
महावीर के कान में कोई खूंटियां ठोंक गया है, लहूलुहान उनका कान हो रहा है। बड़ी मीठी कहानी है। इंद्र ने महावीर को आकर प्रार्थना की है कि मैं आपकी रक्षा का इंतजाम करूं? यह तो बहुत अशोभन है, और हमें पीड़ा होती है कि कोई आपके कान में खीलियां ठोंक जाए। तो महावीर ने कहा कि मैं राजी हूं; जो हो जाए, उसके लिए राजी हूं। क्योंकि अगर मैं राजी नहीं हूं, तो मैं हिंसा करूं या न करूं, मन में हिंसा हो ही जाएगी। अगर मैं राजी नहीं हूं तो हिंसा हो गई; न राजी होना ही हिंसा है। तो मैं राजी हूं। और जो मेरे कानों में खीलियां ठोंक गया है, उसकी बड़ी कृपा है। क्योंकि उसने मुझे एक मौका दिया, जिसका मुझे पहले कोई अनुभव नहीं था। उसने मुझे एक मौका दिया कि जब मेरे कानों में कोई खीलियां ठोंक रहा हो, तब भी मैं राजी होता हूं या नहीं होता हूं। तब भी मैं राजी था। और उसने मुझे मुक्ति का एक अदभुत स्वाद दे दिया, कानों में खीलियां ठोंक कर । अब कोई मेरे कानों में खीलियां ठोंक कर भी मुझे दुखी नहीं कर सकता, इस सत्य को मैं जान गया हूं। अब मुझे कोई दुखी ही नहीं कर सकता, इस सत्य को मैं जान गया हूं। अब मेरी कोई हत्या भी कर दे तो मुझे दुखी नहीं कर सकता। मैं मुक्त हो गया हूं, मैं दूसरों से मुक्त हो गया हूं।