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वेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का निषेध
साल पुराने चित्र पत्थरों पर जो खुदे हैं, अगर इन्होंने भी अंतरिक्ष यात्री देखे हैं, तो सभ्यताएं हमसे भी पहले काफी यात्राएं कर चुकी हैं, शिखर छू चुकी हैं।
मैक्सिको में कोई बीस मील के बड़े पहाड़ पर चित्र खुदे हुए हैं। वे चित्र ऐसे हैं कि नीचे से तो देखें ही नहीं जा सकते; क्योंकि उनका विस्तार बहुत बड़ा है। बीस मील की सीमा में वे चित्र खुदे हुए हैं, और एक-एक चित्र मीलों तक फैला है। तो नीचे से तो उनको देखने का ही उपाय नहीं है; उनको देखने के लिए सिवाय हवाई जहाज के कोई उपाय नहीं है। और वे चित्र कोई पंद्रह हजार वर्ष पुराने हैं।
तो अब बड़ी कठिनाई है यह कि या तो जिन्होंने चित्र खोदे थे, उन्होंने हवाई जहाज के यात्रियों को देखने के लिए खोदे थे। और अगर हवाई जहाज नहीं था पंद्रह हजार साल पहले, तो इन चित्रों को खोदना भी मुश्किल है। इनके खोदने का कोई प्रयोजन भी नहीं है। क्योंकि इनको कोई देख ही नहीं सकेगा जमीन पर। इतनी दूरी से ही वे चित्र दिखाई पड़ सकते हैं! तो वैज्ञानिक कठिनाई में हैं कि अगर हम यह माने कि पंद्रह हजार साल पहले हवाई जहाज था, तो हमें यह भ्रांति छोड़ देनी पड़ेगी कि हमने ही पहली दफा हवाई जहाज निर्मित कर लिया है। अगर पंद्रह हजार साल पहले हवाई जहाज था, तो सभ्यताएं हमसे पहले भी शिखर पा चुकी हैं।
वे सभ्यताएं कहां हैं आज? आज उनका कोई नामलेवा भी नहीं है। आज उनका कुछ निशान भी नहीं छूट गया है। ये भी अनुमान हैं हमारे। इनके बाबत भी कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।
लाओत्से कहता है, सभी चीजें शिखर पर जाकर नीचे गिर जाती हैं। सभी चीजें! विजय भी शिखर पर जाकर गिर जाती है। सफलता भी शिखर पर जाकर गिर जाती है। यश भी शिखर पर जाकर गिर जाता है।
लाओत्से कहता है, इसलिए बुद्धिमान आदमी कभी किसी चीज को शिखर तक नहीं खींचता। वह गिरने का उपाय है। वह अपने हाथ नीचे उतर आने की व्यवस्था है।
"हिंसा ताओ के विपरीत है। और जो ताओ के विपरीत है, वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।'
हिंसा अति है; विध्वंसात्मक अति है। और जो अति पर जाएगा, वह नष्ट हो जाएगा। लेकिन लाओत्से यह कहता है कि ताओ के विपरीत है हिंसा, प्रकृति के विपरीत है हिंसा। इसे हम समझने की कोशिश करें।
अगर कोई आपकी हिंसा करे तो अच्छा नहीं लगता। किसको अच्छा नहीं लगता? आपके निसर्ग को, आपकी प्रकृति को। जब आप किसी के साथ हिंसा करते हैं, उसे भी अच्छा नहीं लगता। किसको अच्छा नहीं लगता? उसकी प्रकृति को, उसके निसर्ग को। इस दुनिया में हिंसा किसी को भी प्रिय नहीं है। कोई की भी प्रकृति नहीं चाहती कि हिंसा हो। फिर भी हम हिंसा करते हैं। जो हम दूसरे के साथ कर रहे हैं, वह हम अपने साथ नहीं चाहते कि कोई करे। दूसरा भी नहीं चाहता। और जब सभी के भीतर का निसर्ग नहीं चाहता कि हिंसा हो, तो एक बात तय है कि हिंसा प्रकृति के प्रतिकूल है। और जो प्रकृति के प्रतिकूल है, लाओत्से कहता है, वह नष्ट हो जाता है।
हो ही जाएगा। क्योंकि प्रकृति के प्रतिकूल होने का कोई उपाय नहीं है। हम चेष्टा कर सकते हैं, लेकिन प्रकृति के प्रतिकूल हम हो नहीं सकते। होने में हम टूटेंगे और नष्ट हो जाएंगे। क्यों? क्योंकि हमारा होना प्रकृति का अंग है। यह मेरा हाथ है, यह मेरे खिलाफ कैसे हो सकता है? अगर यह मेरा अंग है, तो यह मेरे खिलाफ कैसे हो सकता है? एक ही रास्ता है इसके खिलाफ होने का कि इसको लकवा लग जाए, रुग्ण हो जाए। मैं कहूं कि उठो, और यह न उठ सके। यह बीमार हो जाए इतना तो ही मेरे खिलाफ जा सकता है। यह स्वस्थ हो तो मेरे खिलाफ नहीं जा सकता। लेकिन बीमार होकर यह मेरे खिलाफ ही नहीं जा रहा है, यह अपना भी विनाश कर रहा है।
इसलिए जब भी कोई आदमी स्वस्थ होता है तो प्रकृति के प्रतिकूल नहीं होता। हो नहीं सकता। और जब कोई आदमी रुग्ण होता है तो प्रकृति के प्रतिकूल होता है। हम इसे उलटा भी कह सकते हैं कि प्रकृति के प्रतिकूल जो होता
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