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________________ वेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का विषेध वह मार्क्स जैसी बात करते कृष्ण, अर्जुन की समझ में आ जाती; अर्जुन काट देता वैसे ही मजे से, जैसे स्टैलिन ने एक करोड़ लोग काट डाले। कोई अड़चन ही न रही। यह बात अगर पक्की खयाल में आ जाए कि दूसरी तरफ कोई आत्मा है ही नहीं, सिर्फ शरीर, एक यंत्र है, तो यंत्र को तोड़ने में क्या अड़चन आती है? कोई अंतर-ग्लानि भी नहीं होती, कोई अंतःकरण को पीड़ा भी नहीं होती। अगर मार्क्स मिल जाता तो भी अर्जुन को शांति मिल जाती, वह युद्ध में उतर जाता। या महावीर मिल जाते तो वह तलवार छोड़ कर जंगल चला जाता। मगर यह जो आदमी मिल गया कृष्ण, इसने दिक्कत में डाल दिया। इसने कहा, व्यवहार तो तू ऐसे कर, जैसे दुनिया में कोई आत्मा नहीं है-काट! और भलीभांति जान कि जिसे तू काट रहा है, उसे काटा नहीं जा सकता। यह दो अतियों के बीच में जो बात थी, बीच में खड़ा हो जा संतुलित, यह अर्जुन को मुश्किल पड़ी। और पता नहीं अर्जुन कैसे इस मुसीबत के बीच अपने संतुलन को उपलब्ध कर पाया। भारत तो अभी तक नहीं कर पाया। यह कृष्ण की बात बहुत चलती है, गीता इतने लोग पढ़ते हैं; लेकिन भारत से गीता का कोई भी संबंध नहीं है। भारत में या तो अति वाले लोग हैं जो अहिंसा को मानते हैं, और या दूसरी अति वाले लोग हैं जो हिंसा को मानते हैं। लेकिन भारत में अर्जुन जैसा व्यक्तित्व पैदा नहीं हो सका। गीता बिलकुल ही भारत के सिर पर से चली गई है। उसने कभी हृदय को भारत के छुआ नहीं। हालांकि यह बात उलटी मालूम पड़ेगी; क्योंकि घर-घर गीता पढ़ी जाती है। गीता जितनी पढ़ी जाती है, और कुछ पढ़ा नहीं जाता। गीता लोगों को कंठस्थ है, लेकिन छू नहीं सकी। छू नहीं सकती, क्योंकि बहुत कठिन बात है। सैनिक और संन्यासी एक साथ, इससे ज्यादा कोई कठिन बात दुनिया में संभव नहीं है। यह सर्वाधिक नाजुक मार्ग है। __ लाओत्से भी ठीक कृष्ण से सहमत है। लाओत्से कहता है, 'वह युद्ध करता है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता।' और फिर एक बात कहता है, जो बड़े मतलब की है, 'चीजें अपना शिखर छूकर फिर गिरावट को उपलब्ध हो जाती हैं।' लाओत्से कहता है, विजय अगर तुमने पा ली, तो जल्दी ही तुम हारोगे। इसलिए विजय पाना मत, विजय को शिखर तक मत ले जाना। किसी चीज को इतना मत खींचना कि ऊपर जाने का फिर उपाय ही न रह जाए। फिर नीचे ही गिरना रह जाता है। लाओत्से कहता है, सदा बीच में रुक जाना। अतिवादी कभी बीच में नहीं रुकता, खींचता जाता है। और एक जगह आती है, जहां से फिर नीचे उतरने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाता। आखिर हर शिखर से उतराव होगा ही। लेकिन लाओत्से की बात किसी ने भी नहीं सुनी है कभी। सभी सभ्यताएं अति कर जाती हैं; एक शिखर पा लेती हैं, और गिर जाती हैं। कितनी सभ्यताएं शिखर छूकर गिर चुकी हैं। फिर भी वह दौड़ नहीं रुकती। बेबीलोन, असीरिया, मिस्र अब कहां हैं? एक बड़ा शिखर छुआ, फिर नीचे गिर गए। अभी भी वैज्ञानिक कहते हैं कि इजिप्त के जो पिरामिड्स हैं, उतने बड़े पत्थर किस भांति चढ़ाए गए, यह अभी भी नहीं समझा जा सकता। कुछ पत्थर गिजेह के पिरामिड में इतने बड़े हैं कि हमारे पास जो बड़ी से बड़ी क्रेन है, वह भी उन्हें उठा कर ऊपर नहीं चढ़ा सकती। बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है! तो फिर इजिप्त उनको आज से कोई छह हजार साल पहले, सात हजार साल पहले, कैसे चढ़ा सका? अब तक यही समझा जाता था कि आदमियों के सहारे। लेकिन उस पत्थर को चढ़ाने के लिए तेईस हजार आदमियों की एक साथ जरूरत पड़ेगी। तो उनके हाथ ही नहीं पहुंच सकते पत्थर तक। तेईस हजार आदमी एक पत्थर को उठाएंगे कैसे? क्या राज रहा होगा? वे पत्थर कैसे चढ़ाए गए? 341
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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