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ताओ उपनिषद भाग ३
आज अमरीका भी ठीक वैसी हालत में है। आज अमरीका समृद्ध है, संपन्न है। आज उसके बच्चे युद्ध से हटना चाहते हैं। आज अमरीका में जितना, वियतनाम में युद्ध न हो, इसका विरोध है, ऐसा कभी किसी मुल्क में नहीं हुआ कि उसका मुल्क लड़ रहा हो और मुल्क के भीतर इतना भयंकर विरोध हो।
आप थोड़ा सोचें भारत में कि भारत पाकिस्तान से लड़ रहा हो और भारत के सारे युनिवर्सिटी और कालेजों में और सारे युवा-समाज में इसका विरोध हो—कि नहीं, यह लड़ाई गलत है। ऐसा कभी दुनिया में हुआ नहीं; क्योंकि जब मुल्क लड़ता है, तो पूरा मुल्क दीवाना और पागल हो जाता है। और जो दीवाना और पागल नहीं होगा, वह गद्दार और देशद्रोही मालूम पड़ेगा।
अमरीका में यह पहली दफा हो रहा है। होने का कारण है। अति संपन्नता में ही दुसरी अति पर जाने की सुविधा होती है। यह भारत में हुआ। बुद्ध और महावीर के वक्त हम एक शिखर पर पहुंचे। एक ऊंचाई थी। और तब हमने कहा कि हम नहीं लड़ेंगे-मिट जाएंगे, लड़ेंगे नहीं। तब दूसरे को मौका मिल गया। अगर आज अमरीका अपने लड़कों की बात मान ले, तो अमरीका वैसा ही गिरेगा, जैसा भारत कभी गिरा। और हो सकता है लड़के मनवा दें। क्योंकि आज नहीं कल ताकत उनके हाथ में आएगी; आज नहीं कल वे सत्ता में होंगे। और एक अति से दूसरी अति पर मन का जाना बहुत आसान है।
__लाओत्से दूसरी अति पर जाने को नहीं कह रहा है। लाओत्से कहता है, एक खेदपूर्ण आवश्यकता के रूप में युद्ध करता है एक सच्चा सेनापति। युद्ध करता है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता।
बड़ा कठिन है, युद्ध करना और हिंसा से प्रेम नहीं करना। लेकिन ताओ को मानने वाले लोगों ने चीन में और जापान में इस तरह का सैनिक निर्मित करने का महान प्रयोग किया, जो युद्ध करता है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता। अगर आपने समुराई नाम सुना हो, तो जापान में समुराइयों की एक बड़ी जमात पैदा हुई, यह एक खास तरह के सैनिक का नाम समुराई है। उस सैनिक का नाम समुराई है, जो युद्ध तो करता है, लेकिन हिंसा से प्रेम नहीं करता। तब इस समुराई की सारी शिक्षा-पद्धति बड़ी अनूठी है। इसे तलवार सिखाने के पहले ध्यान सिखाया जाता है। और इसे युद्ध पर भेजने के पहले स्वयं के भीतर जाना होता है। और यह दूसरे को काटने जाए, उसके पहले इसे उस अनुभव से गुजरना होता है, जहां यह जानता है कि आत्मा काटी नहीं जा सकती।
यह बड़ी कठिन बात है। क्योंकि संन्यासी होना एक बात है, आसान है। सैनिक होना भी आसान है। लेकिन संन्यासी और सैनिक एक साथ होना बहुत कठिन है। समुराई संन्यासी और सैनिक एक साथ है।
कृष्ण ने भी अर्जुन को समुराई बनाने की कोशिश गीता में की है। वह समुराई बनाने की कोशिश है-सैनिक और संन्यासी एक साथ। वे कहते हैं, तू लड़! क्योंकि अगर न लड़े, वह अति होगी। वे यह भी नहीं कहते कि लड़ने को तू जीवन का कोई अंत समझे; वह भी अति होगी। अर्जुन को आसान था, कृष्ण कह देते, काट! कोई आत्मा नहीं है, कोई परमात्मा नहीं है, आदमी सिर्फ शरीर है। गीता में आगे जाने की जरूरत न थी। अर्जुन को इतना पक्का हो जाता कि आदमी सिर्फ शरीर है, काटने-पीटने में कोई हर्ज नहीं है, वह लोगों को वृक्षों की पंक्ति की भांति काट डालता। अगर उसे कोई भरोसा दिला देता भौतिकवाद का, तो कोई अड़चन न थी, वह सैनिक हो जाता। शद्ध सैनिक वह था। या अगर कोई उसे भरोसा दिला देता कि हर स्थिति में हिंसा पाप है, तू भाग जा, तो वह बिलकुल तैयार था भाग जाने को। वह संन्यासी हो जाता।
उसे एक बहुत ही अजीब आदमी से मुलाकात हो गई। वह जो सारथी बना कर बैठा था, उससे ज्यादा अजीब आदमी खोजना मुश्किल है। उसने दोनों बातें कहीं। वह बातें तो महावीर जैसी करने लगा सारथी; आत्मा अमर है, और जीवन का परम लक्ष्य परमात्मा को पाना है, और मुक्ति-यह बात करने लगा।
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