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मवेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का विषेध
जंगली, जिनके पास कुछ समझ नहीं। गणित की, ज्योतिष की, धर्म की ऊंचाइयां स्पर्श की। संगीत की, कला की साहित्य की ऊंचाइयां स्पर्श की। एक शिखर स्वर्ण का! और अचानक भूमिसात हो गया। और जिन्होंने हराया, वे बहुत क्षुद्र थे। उनका कोई नाम जानने वाला भी न था। भारत को नहीं जीता था उन्होंने तो इतिहास में उनका कभी कोई उल्लेख न होता। क्या हुआ? अतिशय कभी-कभी बड़े खतरे हो जाते हैं। भारत एकदम दूसरी अति पर उतर गया। . एक अति है : जहां जरूरी न हो वहां हिंसा करना, हिंसा को खेल समझ लेना, रक्तपात को रस बना लेना। एक दूसरी अति है : इतने भयभीत हो जाना, इतने डर जाना कि जहां जरूरत हो जाए, वहां से भी हट जाना।
ध्यान रहे, भारत ने सर्जरी की सबसे पहली खोज की। सुश्रुत ने, जो आज की नवीनतम सर्जरी है उसके सूत्र स्पष्ट लिखे हैं। प्लास्टिक सर्जरी के बाबत भी। लेकिन फिर क्या हुआ? बौद्धों और जैनों के प्रभाव में सर्जरी भी हिंसा मालूम पड़ी। वह भी नहीं करनी चाहिए। किसी की हड्डी काटनी, हाथ काटना, पेट काटना, यह नहीं किया जा सकता। और फिर आदमी को काटना हो, उसकी शरीर की रचना, उसका अस्थिपंजर, वह सब जानना हो, तो मुर्दे भी काटना पड़ेंगे। फिर कुछ पशुओं को भी काट कर जानकारी लेनी पड़ेगी। वह सब नहीं हो सकता। तो बीमारी सही जा सकती है, भयंकर बीमारियां सही जा सकती हैं, लेकिन सर्जरी नहीं की जा सकती। सुश्रुत ने जो खोजा था, अगर सुश्रुत के बाद तीन हजार साल हम उस सूत्र पर चलते, तो पश्चिम की सर्जरी आज बचकानी होती। लेकिन चलने का कोई उपाय न रहा; क्योंकि सर्जरी में, शल्य-क्रिया में हिंसा मालूम पड़ने लगी। वह नहीं की जा सकती।
जैनों ने तो अति कर दी, उन्होंने खेती-बाड़ी बंद कर दी। क्योंकि उसमें हिंसा! इसलिए कोई जैन खेती-बाड़ी नहीं करता। क्योंकि वृक्ष उखाड़ने पड़ेंगे, पौधे उखाड़ने पड़ेंगे, काटने पड़ेंगे। तो पौधे में प्राण हैं।
इसे थोड़ा समझ लें। पौधे को काटना खेदपूर्ण हिंसा है। कोई चाहता नहीं। अगर हम जी सकें बिना पौधे को काटे, तो कोई काटने की जरूरत नहीं है। और फिर अगर मैं न भी काटूं, तो कोई दूसरा मेरे लिए काटेगा। फर्क कहां पड़ता है? जैन गेहूं तो खाएंगे ही। कोई और बनाएगा, कोई और काटेगा। तो इतना ही हुआ कि हिंसा हम दूसरे से करवा रहे हैं, अपने दलालों से करवा रहे हैं। बाकी जब मैं भोजन ले रहा हूं, जब तक मैं भोजन ले रहा हूं, तो भोजन लेने में जो भी हिंसा होगी, उसका जिम्मा तो मेरा होगा।
तो जैनों ने बंद कर दी। जैन हट गए। जैन इसीलिए सब दुकानदार हो गए, क्योंकि कोई उपाय न रहा। क्षत्रिय थे मूलतः वे; क्योंकि महावीर और जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे। तलवार उनके हाथ में ही थी, ऐसे वे पैदा हुए थे। निश्चित ही जब उनके चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे, तो उनके मानने वाले अधिक लोग क्षत्रिय होंगे। क्षत्रिय रहने का कोई उपाय न रहा, क्योंकि हिंसा तो की नहीं जा सकती। ब्राह्मण होने का कोई दरवाजा नहीं था; क्योंकि जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। शूद्र कोई होना नहीं चाहता था। इसलिए वणिक होने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया। खेती-बाड़ी की जा नहीं सकती, शूद्र कोई हो नहीं सकता; तो सिर्फ दुकान चलाने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया।
यह जो अति पैदा हो जाती है, यह अति खतरे में ले जाती है-एक से दूसरे खतरे में। कुएं से बचते हैं, खाई में गिर जाते हैं। तो एक शिखर छूकर भारत एकदम नीचे गिर गया। इसलिए भारत के मन में अभी भी हरा है वह घाव। और हमारे मन में ऐसा लगता है कि कोई एक स्वर्ण-शिखर था अतीत में, जिसे हम छूकर हट गए। इसलिए हमारा मन बार-बार पीछे लौट जाता है। उसमें थोड़ी सचाई है। एक शिखर हमने छुआ था। लेकिन होता खतरा तभी है, जब कोई शिखर छू लेता है। उदाहरण दूं तो खयाल में आ जाए।
जब हम सभ्यता के इतने शिखर पर थे और विलास की सुविधा थी, इस विलास की भी कि हम चाहें तो अहिंसा की अति में चले जाएं। यह भी सिर्फ तभी संभव हो सकता है, जब लोग बहुत खुशहाल हों। तब इतना सोच सकें, इतनी बारीक, सूक्ष्म अहिंसा की बात सोच सकें। तो हम हट गए।
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