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________________ वेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का विषेध इसको ऐसा समझें कि आज अमरीका हार जाए; तो आप सोचते हैं, रूस की गति का क्या होगा? रूस के विकास का क्या होगा? सब शून्य हो जाएगा। या आज रूस हार जाए तो अमरीका के सारे विकास का क्या होगा? शून्य हो जाएगा। वह सारा विकास एक सतत द्वंद्व के बीच तनाव में है। और आज मैं समझता हूं कि रूस और अमरीका इस बात को भलीभांति समझते हैं कि लड़ना उनके हित में नहीं है, लड़ने का पोज बनाए रखना उनके हित में है। लड़ना जरा भी हित में नहीं है, लेकिन एक लड़ने की मुद्रा बनाए रखना हित में है। उसकी शिथिलता खतरनाक हो सकती है। दुश्मन को मिटा कर आप भी मिट जाते हैं; क्योंकि उस दुश्मन के साथ स्पर्धा में जो-जो निर्मित हुआ था, वह सब गिर जाता है और क्षीण हो जाता है। हारा हुआ तो हारता है, दुख पाता है; जीते हुए को भी दुष्परिणाम हाथ लगते हैं। 'जहां सेनाएं होती हैं, वहां कांटों की झाड़ियां लग जाती हैं। और जब सेनाएं खड़ी की जाती हैं, तो उसके अगले वर्ष ही अकाल की कालिमा छा जाती है। इसलिए एक अच्छा सेनापति अपना प्रयोजन पूरा कर रुक जाता है।' लाओत्से यह कह रहा है कि मजबूरी हो सकती है कभी राज्य के लिए, समाज के लिए; व्यक्ति के लिए कभी भी नहीं। इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें। व्यक्ति के लिए मजबूरी कभी भी नहीं है। लेकिन समाज और राष्ट्र के लिए मजबूरी हो सकती है। क्योंकि एक व्यक्ति का सवाल नहीं है, करोड़ों लोगों का सवाल है। तो राष्ट्र को कभी लड़ने पर भी उतरना पड़ सकता है। तो पहले तो ताओ को मानने वाला युद्ध की सलाह नहीं देगा, सैन्य-शक्ति की सलाह नहीं देगा। और अगर मजबूरी ही हो, तो भी सेनापति अगर होशियार है तो धमकी देकर रुक जाएगा। युद्ध में उतर जाना नासमझ सेनापतियों का काम है। समझदार उस सीमा तक रुक जाएगा, जहां सिर्फ बल का दिखावा होता है, लेकिन बल का संघर्ष नहीं होता। कल मैं आपसे कह रहा था, पशुओं में सिर्फ बल का दिखावा होता है, संघर्ष नहीं होता। ज्यादा होशियार मालूम पड़ते हैं। निसर्ग शायद उन्हें ज्यादा एक अंतर्दृष्टि दिए हुए है। बल का प्रयोग काफी होता है दिखावे के लिए, लेकिन कभी उसका ठीक प्रयोग नहीं होता। इसके पहले कि खतरा हो, पशु रुक जाते हैं। जैसे ही साफ हो गई बात कि कौन कमजोर है, कौन ताकतवर है, रुकावट आ जाती है। 'सेनापति अपना प्रयोजन पूरा कर रुक जाता है। वह शस्त्र-बल का भरोसा कदापि नहीं करता।' आमतौर से हम सोचते हैं कि सेनापति शस्त्र-बल का भरोसा करता है। राज्य तो शस्त्र-बल के भरोसे पर ही निर्भर होता है। लेकिन लाओत्से की सलाह, ताओ के अनुसार अगर कभी कोई समाज चलता हो, तो उसके लिए यह है कि भरोसा शस्त्र-बल पर नहीं होना चाहिए। वह अंतिम मजबूरी है, एक आवश्यक बुराई है। न टाली जा सके, ऐसी बीमारी हो सकती है, लेकिन उसका भरोसा नहीं होना चाहिए। जिसका उसे भरोसा है, वह पहले ही मौके पर उसका उपयोग कर लेगा। और जो समझदार नहीं है, वह जरूरत जब पूरी हो जाएगी तब भी नहीं रुकेगा। पिछले महायुद्ध में ऐसा हुआ। जापान पर एटम बम गिराने की कोई भी जरूरत न थी। जर्मनी घुटने टेक रहा था; जापान के पैर टूटे जा रहे थे। दो-चार दिन, सात दिन ज्यादा से ज्यादा, और जापान विलीन हो जाता। लेकिन अमरीका को शस्त्र-बल का भरोसा था। एटम हाथ में आ गया था पहली दफा आदमी के, वै उसका उपयोग करना चाहते थे। जरूरत बिलकुल भी न थी। कोई हिरोशिमा-नागासाकी में एक-एक लाख लोगों के मर जाने की जरा भी जरूरत न थी। लेकिन हाथ में ताकत हो तो नासमझ उसका उपयोग करना चाहेगा। इसलिए अमरीका का अपराध क्षमा नहीं किया जा सकता। युद्ध की कोई जरूरत न रह गई थी। जापान हार ही रहा था। और हारते हुए के ऊपर एटम का फेंकना मजबूरी नहीं थी, विलास था। अनावश्यक था। अमरीका के 331
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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