________________
है। वह यह नहीं
वेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का निषेध
सर्फ कांटों से भरा रह जाम समाप्त हो रहे हो। और नही कहता। वह कहता
को मिटा रहा है। जिस दिन वह पाएगा दूसरा मिटाने को नहीं बचा-वह एक ही बात जानता है, मिटाना-वह अपने को मिटाएगा। इसलिए हिंसक अंततः आत्मघाती हो जाता है।
सृजन दूसरी ही यात्रा है।
लाओत्से परम अहिंसा में भरोसा करता है। लेकिन उसकी अहिंसा के कारण बड़े अलग हैं। वह यह नहीं कहता कि दूसरे को मत सताओ, क्योंकि दूसरे को दुख होगा। वह यह नहीं कहता। वह कहता है, दूसरे को मिटाने में तुम मिट रहे हो, दूसरे को समाप्त करने में तुम समाप्त हो रहे हो। और जिस जीवन में फूल खिल सकते थे आनंद के, वह तुम्हारा जीवन सिर्फ कांटों से भरा रह जाएगा।
इसमें थोड़ी सी विचारणीय है एक बात। आमतौर से अहिंसावादी यही कहते हैं कि दूसरे को दुख मत दो, क्योंकि दूसरे को दुख देना बुरा है। लाओत्से यह नहीं कहता। लाओत्से कहता है, दूसरे को दुख मत दो, क्योंकि इस तरह तुम अपने सुख का, अपने आनंद का अवसर खो रहे हो। लाओत्से बिलकुल स्वार्थी मालूम पड़ेगा।
लेकिन ध्यान रहे, लाओत्से कहता है कि अगर कोई व्यक्ति ठीक-ठीक स्वार्थी हो जाए तो उससे कोई बुरा काम हो ही नहीं सकता। यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी। हम तो सिखाते हैं लोगों को परार्थी होने के लिए, परोपकार के लिए। छोड़ो स्वार्थ को और परार्थ को पकड़ो। लेकिन लाओत्से कहता है, जिसे स्वार्थ का ही पता नहीं, उसे परार्थ का तो कोई पता नहीं होगा। और जो अभी अपने स्वयं का हित भी साधने में समर्थ नहीं है, वह दूसरे का हित साध सकेगा, इस पागलपन में मत पड़ना। सच तो यह है कि जो अपना हित साध लेता है, उस साधने में ही दूसरे का हित सध जाता है। क्योंकि जो अपने आनंद को पकड़ लेता है, वह किसी को दुख देने में इसलिए असमर्थ हो जाता है कि उससे स्वयं का आनंद नष्ट होता है।
धर्म परम स्वार्थ है; लेकिन उससे परम परार्थ घटित होता है। नीति परार्थ की बातें करती है, कुछ घटित नहीं होता। न परार्थ घटित होता है, न स्वार्थ घटित होता है।
लाओत्से कहता है कि अगर व्यक्ति अपने निज का पूरा खयाल रख ले तो उससे इस जगत में बुरा होगा ही नहीं कुछ। उस खयाल में ही जीवन के प्रति उसका सदभाव और करुणा गहन हो जाएगी। असल में, दूसरे पर दया वही करता है, जिसे अपने पर दया करना आ गया है। और दूसरे पर दया करना जो नहीं जानता, उसका मतलब ही यह है कि उसे अभी अपने पर दया करने का कोई भी पता नहीं है।
बुद्ध को किसी ने पत्थर फेंक कर मार दिया है। आनंद, उनका शिष्य, क्रोधित हो गया है। और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें तो इस आदमी को मैं रास्ते पर लगाऊं। बुद्ध ने कहा, भूल उसने की है, सजा तू अपने को देगा? आनंद से बुद्ध ने कहा, बहुत समय पहले यह सूत्र मेरी समझ में आ गया कि हम दूसरे की नासमझियों के लिए अपने को दंड देते हैं। यह पत्थर उसने फेंका है, यह उसका काम हुआ। अगर इस पत्थर के सिलसिले में हम भी कुछ करने जाते हैं, तो वह आदमी जीत गया और उसने हमें एक वर्तुल में फंसा लिया। वह हमारा मालिक हो गया। उसने पत्थर मारा और हमारे भीतर उसने क्रिया को जन्म दे दिया; वह हमारा मालिक हो गया। वह जीत गया, हम हार गए। और अब अगर मैं क्रोधित होता हूं, तो उसका पत्थर मारना सफल हो गया। नहीं, बुद्ध ने कहा कि मैं परम स्वार्थी हूँ, मैं अपने सुख को बचाता हूं। वह पत्थर मारे तो भी मेरे सुख को मैं नहीं टूटने देता; मैं अपने आनंद को बचाता हूं।
और एक बार कोई आदमी अपने आनंद को बचाना सीख जाए तो इस दुनिया में उस आदमी से कुछ भी बुरा दूसरे के लिए नहीं हो सकेगा। क्योंकि दूसरे के लिए बुरा करना गहरे में अपने लिए ही गडा खोदना सिद्ध होता है। किसी नीति-शास्त्र के वचन के अनुसार नहीं, निरंतर मनुष्य के अपने ही अनुभव के अनुसार। व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी लाओत्से की यही दृष्टि है। यह सूत्र समाज की तरफ इशारा है।
335