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ताओ उपनिषद भाग ३
दूसरी बात : जैसे ही मैं जबरदस्ती करता हूं, बल का प्रयोग करता हूं, मैं अपनी शक्ति खो रहा हूं, मैं दीन हो रहा हूं, मैं कमजोर हो रहा हूं। और मेरी दीनता के कारण कोई दूसरा भी समृद्ध नहीं हो रहा। क्योंकि मेरी जबरदस्ती दूसरे को भी पीड़ा में डालती है, उसे भी जबरदस्ती करने को मजबूर करती है। वह भी अपनी शक्ति को व्यर्थ व्यय करेगा। जितनी ज्यादा हिंसा होगी, उतना जीवन का अवसर खोता है व्यर्थ। जितनी कम हिंसा होगी, उतनी जीवन की शक्ति बचती है। और बची हुई शक्ति ही अंतर्यात्रा के काम में आ सकती है।
ध्यान रहे, हिंसक व्यक्ति सदा बाहर की तरफ यात्रा करता है। क्योंकि हिंसक को तो सदा दूसरे का ही ध्यान रखना पड़ता है। और जो हिंसा करता है, वह हिंसा से भयभीत भी होगा। और जो हिंसा करने को तत्पर है, वह दूसरे की हिंसा से डरेगा भी। वह सदा ही दूसरे में उलझा रहेगा। वह हारे या जीते, लेकिन नजर उसकी दूसरे पर रहेगी। और जिन सीढ़ियों से हम यात्रा करते हैं, उन्हीं सीढ़ियों से दूसरे भी यात्रा करते हैं। और जब मैं हिंसा करके किसी की छाती पर बैठ जाता हूं, तो फिर मुझे भयभीत रहना पड़ेगा। यह तो हो भी सकता है कि जिसकी छाती पर मैं बैठा हूं, वह विश्राम को उपलब्ध हो जाए; लेकिन यह नहीं हो सकता कि मैं विश्राम को उपलब्ध हो जाऊं। मुझे तो भयभीत रहना ही पड़ेगा कि जिन उपायों से मैंने उसे नीचे दबा रखा है, वे ही उपाय किसी भी क्षण मेरे खिलाफ काम लाए जा सकते हैं। और शिथिलता का कोई भी क्षण, और मैं नीचे हो सकता हूं और दुश्मन ऊपर हो सकता है। जो हिंसक है, वह दूसरे पर ही उसका ध्यान अटका रहेगा। और जो हिंसक है, वह कभी अभय को उपलब्ध नहीं हो सकता। भीतर की कोई यात्रा संभव नहीं है, जिसका मन दूसरे में उलझा हो।
शक्ति का अपव्यय है; दूसरे में उलझाव है। अपने जीवन के अवसर का अपव्यय है। व्यर्थ ही, उससे कुछ सृजन नहीं होगा। सिर्फ मैं खोऊंगा, रिक्त और समाप्त हो जाऊंगा। जो दूसरे को समाप्त करने की कोशिश करता है, वह स्वयं भी समाप्त हो रहा है उस कोशिश में। दूसरा समाप्त हो पाएगा या नहीं, नहीं कहा जा सकता, लेकिन दूसरे को समाप्त करने में मैं समाप्त हो रहा है, यह सुनिश्चित है।
फिर तीसरी बात और खयाल में ले लें कि हिंसक की दृष्टि विध्वंस की होती है, मिटाने की होती है। हिंसा का मतलब ही है मिटाने की आतुरता। और जो मिटाने में बहुत उत्सुक हो जाता है, वह बनाने की कला भूल जाता है। उसका सृजनात्मक व्यक्तित्व पंगु हो जाता है; विध्वंसात्मक व्यक्तित्व ही रह जाता है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि इस दुनिया में जो लोग बहुत हिंसात्मक हैं, वे बहुत सृजनात्मक हो सकते थे, इसीलिए हिंसात्मक हैं। इस दुनिया में जो बहुत बड़े अहिंसक लोग पैदा हुए हैं, वे भी बहुत बड़े हिंसक हो सकते थे, इसीलिए अहिंसक हैं।
मनसविद हिटलर के जीवन का गहन अध्ययन किए हैं। जरूरी भी है अध्ययन; क्योंकि हिटलर जैसे लोग जमीन पर होते रहें तो आदमी का होना ज्यादा देर तक संभव नहीं रहेगा। हिटलर एक चित्रकार बनना चाहता था; नहीं बन पाया। मूर्तियां गढ़ना चाहता था, सुंदर चित्र बनाना चाहता था; नहीं बना पाया। और मनसविद कहते हैं कि उसकी यह सृजन की आकांक्षा विध्वंस बन गई। फिर आदमी को तोड़ने, मिटाने और नष्ट करने में उसकी सारी शक्ति लग गई। शक्ति एक ही है, चाहे उससे मिटाएं, और चाहे उससे बनाएं। जो नहीं बना पाएगा, वह मिटाने में लग जाएगा। जो मिटाने में लग जाएगा, उसे बनाने का खयाल ही नहीं आएगा।
साथ ही यह भी खयाल रखें कि जब कोई दूसरे को मिटाने में लगता है, तो वह अपने को भी मिटा रहा है। समय खो रहा है, शक्ति खो रही है, जीवन चुक रहा है। और जो दूसरे के मिटाने में संलग्न है, वह मिटाना ही सीख जाता है। वह अपने लिए भी आत्मघाती हो जाता है।
हिटलर ने इतने लोगों की हत्या की और अंत में अपनी आत्महत्या की। वह बिलकुल तार्किक है घटना; ठीक यही अंत होगा। क्योंकि मिटाने वाले को एक ही तर्क आता है, मिटाने का। जब तक वह दूसरे के खिलाफ है, दूसरे
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