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ओत्से समस्त बल-प्रयोग के विरोध में है। जो भी निसर्ग के पक्ष में होगा, वह बल का विरोधी भी होगा। जबरदस्ती, किसी भी भांति की, निसर्ग के विपरीत है। इस बात को ठीक से समझ लें तो फिर इस सूत्र को समझना
आसान हो जाएगा। निसर्ग को देखें, आदमी को छोड़ कर। वृक्ष बड़े हो रहे हैं, नदियां बह रही हैं, चांद-तारे घूम रहे हैं। इतना विराट आयोजन चल रहा है। पर कहीं भी कोई जबरदस्ती नहीं मालूम पड़ती, जैसे सब सहज हो रहा है, जैसे इस सब होने में कोई बल का प्रयोग नहीं है, कोई धक्का नहीं दे रहा। नदी अपने से ही बही जा रही है, वृक्ष अपने से बड़े हो रहे हैं, तारे अपने से घूम रहे हैं। आदमी न हो, तो जगत बहुत मौन है। आदमी न हो, तो जगत में कोई द्वंद्व
नहीं है, कोई संघर्ष नहीं है। एक सहजता, एक स्पांटेनिटी है। लाओत्से मानता है, जब तक आदमी भी अपने भीतर और अपने बाहर इतना ही सहज न हो जाए, तब तक धर्म को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि धर्म का एक ही अर्थ हो सकता है: सहजता। और जब कोई सहज होगा, तभी आनंद को भी उपलब्ध होगा। जहां संघर्ष है, जहां द्वंद्व है। जहां जबरदस्ती है, जोर है, बल है, वहां दुख होगा।
इसके कई आयाम हैं। पहलाः जैसे ही हम जबरदस्ती शुरू करते हैं, वैसे ही हमने अपनी मान्यता को जगत पर आरोपित करना शुरू कर दिया। जैसे ही मैं जबरदस्ती शुरू करता हूं, मैंने यह कहना शुरू कर दिया कि इस जगत के विपरीत हूं मैं। और जिस पर मैं जबरदस्ती करता हूं, मैंने उसकी आत्मा की हत्या शुरू कर दी। मैं उसकी स्वतंत्रता छीन रहा हूं, मैं उसका निसर्ग छीन रहा हूं। उसे मैं अपने अनुसार नहीं चलने दे रहा, मेरे अनुसार चलाने की कोशिश कर रहा हूं। चाहे फिर वह पिता हो, चाहे मां, चाहे गुरु, चाहे राजा, वह कोई भी हो, जो किसी दूसरे को अपनी मर्जी के अनुसार चलाने के लिए बल का प्रयोग कर रहा है, वह हिंसा कर रहा है। क्योंकि हिंसा का एक ही अर्थ होगा कि हम किसी मनुष्य का साधन की तरह उपयोग कर रहे हैं, साध्य की तरह नहीं।
जर्मन चिंतक इमेनुअल कांट ने नीति की परिभाषा में इस सूत्र को जोड़ा है। कांट ने कहा है कि एक ही नीति मैं जानता हूं कि किसी मनुष्य के साथ उसे साधन मान कर व्यवहार मत करना। प्रत्येक मनुष्य साध्य है। कोई मनुष्य किसी का साधन नहीं है। क्योंकि जब हम किसी मनुष्य का साधन की तरह उपयोग करते हैं, तभी हमने उस मनुष्य को वस्तु बना दिया। वह मनुष्य नहीं रहा। हमने उसकी आत्मा को इनकार कर दिया।
पुरुष न मालूम कितनी सदियों से स्त्री को अपनी संपत्ति मानते रहे हैं। वह अनीति है। क्योंकि कोई आत्मा किसी की संपत्ति नहीं हो सकती। संपत्ति मानते रहे हैं, इसीलिए युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगा सके। संपत्ति ही दांव पर लगाई जा सकती है, कोई मनुष्य दांव पर नहीं लगाया जा सकता। किसी मनुष्य को वस्तु मानना ही पाप है। और जब हम जबरदस्ती करते हैं, तब हमने वस्तु माननी शुरू कर दी।
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