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ताओ उपनिषद भाग ३
कि इसकी परेशानी का कारण यह लड़का नहीं है, इसकी परेशानी का कारण पिछले दो सौ वर्षों के बाप, जो सबको शिक्षित करने में लगे हैं, वे हैं। अब वे शिक्षित हो गए। अब शिक्षा का जो फल हो सकता था, वह सामने आ रहा है। अब वे पूछने लगे, अब वे तर्क करने लगे, अब वे विचार करने लगे। अब जिंदगी उनको बिना विचार के व्यर्थ मालूम होती है। अब वे कुछ भी करेंगे तो सोच कर करेंगे। अब वे हर कुछ मान नहीं सकते। तब मां-बाप और शिक्षक चिल्ला रहे हैं कि अनुशासनहीनता है।
शिक्षित आदमी अनुशासनबद्ध होना मुश्किल है। सिर्फ अशिक्षित आदमी अनुशासनबद्ध हो सकता है। या फिर एक बिलकुल और ढंग की शिक्षा चाहिए, जिसका हमें अभी कोई भी पता नहीं है। अभी तो हम जब भी शिक्षित करेंगे किसी को, वह अनुशासनहीन हो जाएगा। हां, एक मजे की बात है-वह अनुशासनहीन हो जाएगा और दूसरों पर अनुशासन करना चाहेगा। इसको आप देखें। विद्यार्थी को शिक्षक कहता है अनुशासनहीन। और वाइस चांसलर को पूछे, वह कहता है कि शिक्षक अनुशासनहीन। और राष्ट्रपति को पूछे, वे कहते हैं, वाइस चांसलर कोई हमारी सुनते नहीं, सब अनुशासनहीन। ऊपर वाला सदा नीचे वाले को कहता है अनुशासनहीन है। उसके ऊपर वाला उसको कहता है अनुशासनहीन है।
असल में शिक्षित आदमी अपने ऊपर किसी को पसंद नहीं करता; सबको अपने नीचे चाहता है। जो भी नीचे है, उसको अनुशासित करना चाहता है। लेकिन वह जो नीचे है, वह भी नीचे नहीं रहना चाहता। वह भी शिक्षित है। शिक्षा महत्वाकांक्षा को जगा देती है। हमने सार्वभौम शिक्षा फैला कर सार्वभौम महत्वाकांक्षा जगा दी। हमने हर
आदमी का अहंकार जगा दिया। अब उस अहंकार को तृप्ति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए आग की लपटें जल रही हैं। बहाने हैं सब।
अभी एक मित्र, एक विधान सभा के व्हिप हैं, वे मुझे मिलने आए थे। वे कहने लगे कि पहले एक सत्ता थी, एक पार्टी की हुकूमत थी हमारे राज्य में, उसको हम लोगों ने मेहनत करके बदल डाला। अब दूसरी पार्टी की हुकूमत
आ गई। बड़ी आशाएं थीं, वे सब खतम हो गईं। अब हम लोग क्या करें? क्या हम इसको बदल कर अब तीसरी पार्टी को ले आएं? मैंने उनको कहा कि आप ला सकते हैं, लेकिन फिर भी आशाएं इसी तरह व्यर्थ होंगी। क्योंकि जो
आप कर रहे हैं, उससे आशाओं के पूरे होने का कोई लेना-देना नहीं है। एक की जगह दूसरे को रखें, दूसरे की जगह तीसरे को रखें, थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है। थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है, क्योंकि थोड़ी देर के लिए लगता है कि अब दूसरे को मौका मिला, थोड़ा काम होने का समय दो। लेकिन जैसे-जैसे समय निकलता है, पता चलता है-अरे, कुछ भी नहीं हो रहा, कुछ भी नहीं हो रहा। पुरानी कांग्रेस सत्ता से गई, नई कांग्रेस सत्ता में आई; आशा बंधी। अब ढीली होती जा रही है आशा कि कुछ नहीं हो रहा।
आदमी जो करता है, नहीं जानता कि उसके परिणाम क्या होंगे। और यह भी नहीं जानता कि क्यों कर रहा है। उसके भीतर अचेतन कारण क्या हैं, उसका भी उसे पता नहीं है। भविष्य के परिणाम क्या होंगे, इसका भी उसे पता नहीं है। लेकिन किए चला जाता है। और तब जाल में उलझता चला जाता है।
लाओत्से कहता है, ये लोग सफल नहीं होंगे। क्योंकि संसार विराट की कृति है, इसे मानवीय हस्तक्षेप से नहीं गढ़ा जा सकता।
लेकिन यह बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आदमी हस्तक्षेप करना चाहता है। छोटी-छोटी बात में हस्तक्षेप करना चाहता है। जहां न किए भी चल जाता, वहां भी करना चाहता है। आपका बच्चा आपसे कह रहा है, जरा बाहर जाकर खेलूं? नहीं! खेल सकता था, कुछ दुनिया बिगड़ी नहीं जा रही थी। लेकिन हस्तक्षेप करने का मजा। नहीं तो बाप होने का कोई मजा ही नहीं है। अगर हां और हां ही कहते चले जाएं तो बाप किसलिए हुए? इतनी तकलीफ झेल रहे
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